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________________ श्री जैन सिद्धान्त चोल संग्रह, पांचवां भाग २१५ mकहा-बेटी ! तुम राज महल में पली हो । तुम्हारा शरीर इस योग्य नहीं है कि घर के कामों में इस तरह पिसा करो। तुम्हें अपने स्वास्थ्य । और खान पान का भी ध्यान रखना चाहिए। रथी की इस बात को उसकी स्त्री ने सुन लिया। उसे विश्वास हो गया कि वास्तव में मेरे पति इस पर आसक्त हो गए हैं। क्रोध से ऑखें लाल करके वह वमुमतीके पास आई और कहने लगीक्यों ? मुझे ठगने चली है। ऊपर से तो मुझे मां कहती है और दिल में सौत बनने की इच्छा है। अच्छा हुआ मैं समय पर चेत गई । अव तुझे घर से निकलवा कर ही अन्न जल ग्रहण करूँगी। वसुमती के विरुद्ध वह जोर जोर से बकने लगी। घर के लोग उसके इस रूप को देख कर चकित रह गए । रथी को मालूम पड़ा तो वह भी दोड़ा हुआ आया और अपनी स्त्रीको समझाने लगा। उसके समझाने पर वह अधिक बिगड़ गई और कहने लगी-अब तोसारा दोष मेरा ही है, क्योंकि मैं अच्छी नहीं लगती। मैं अच्छी लगती तो इसे क्यों लाते ? अब मैं निश्चय कर चुकी हूँ कि या तो इसे घर से निकाल दो नहीं तो खाना पीना छोड़ कर अपने प्राण दे देंगी। केवल निकाल देने से ही मुझे सन्तोष न होगा। लड़ाई से लौटे हुए सभी योद्धा चम्पापुरी को लूट कर बहुत धन लाए हैं। आप कुछ भी नहीं लाए। इस लिए इसे बाजार में बेच कर मुझे पीस लारव मोहरें लाकर दो। तभी अनजल ग्रहण करूँगी। ___ रथी ने अपनी स्त्री को बहुत समझाया किन्तु वह न मानी। यद्यपि धारिणी और वसुमती के आदर्श से रथीकाखभाव बहुत कोमल हो गया था फिर भी उसे क्रोध आ गया। उसने अपनी स्त्री को कहा- ऐसी सदाचारिणी और सेवापरायण पुत्री को मैं अपने घर से नहीं निकाल सकता।तुम्हीं मेरे घर से निकल जाओ। दोनों में तकरार बढ़ने लगी।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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