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________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २०५ शतानीक में चम्पा का राज्य लेने की भावना दृढ़ हो चुकी थी और दधिवाहन में यथासम्भव हिंसा न होने देने की । राजकर्मचारी तथा प्रजाजन द्वारा की गई प्रार्थना पर बिना ध्यान दिए दधिवाहन राजा घोड़े पर सवार होकर शतानीक के पास जा पहुँचे। उन्हें अकेला श्राया देख कर शतानीक बहुत प्रसन्न हुआ । उसका अभिमान और बढ़ गया। सोचने लगा- दधिवाहन डर कर मेरी शरण में चला आया है। शतानीक के पास पहुँच कर दधिवाहन ने कहा- महाराज ! हम दोनों में मित्रतापूर्ण सन्धि है । आप मेरे सम्बन्धी भी हैं। आज तक हम दोनों का पारस्परिक व्यवहार प्रेमपूर्ण रहा है। मेरे खयाल में हमारी तरफ से ऐसी कोई बात नहीं हुई जिससे आपको किसी प्रकार की हानि हुई हो फिर भी आपने अचानक चम्पापुरी पर आक्रमण कर दिया। मेरा खयाल है, आप भी मजा में शान्ति रखना पसन्द करते हैं। नरहत्या आपको भी पसन्द नहीं है । आप इस बात को समझते हैं कि क्षत्रिय का धर्म किसी को कष्ट देना नहीं किन्तु कष्ट देने वाले चोर और डाकुओं से प्रजा की रक्षा करना है । यदि राजा स्वयं कष्ट देने लगे तो उसे राजा नहीं लुटेरा कहा जाएगा। " क्या आप कोई ऐसा कारण बता सकते हैं जिससे आप के इस आक्रमण को न्यायपूर्ण कहा जा सके ? शतानीक- जब शत्रु ने आक्रमण कर दिया हो उस समय न्याय-अन्याय की बात करना कायरता है । अपनी कायरता को धर्म की आड़ में छिपाना बीर पुरुषों का काम नहीं है। इस समय न्याय और धर्म का बहाना निरा ढोंग है। युद्ध करना, नए नए देश जीतना, अपना राज्य बढ़ाना, क्षत्रियों के लिए यही न्याय है। दधिवाहन - युद्ध से होने वाले भयङ्कर परिणाम पर भाप
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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