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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग m १५६ में नीचे लिखे सोलह गुण होने चाहिएं। ( १ ) श्रार्यदेशसमुत्पन्न - जिन देशों में तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि उत्तम पुरुष होते हैं उन्हें आर्य देश कहते हैं । धर्मभावना भी आर्यदेश में ही होती है, इस लिए दीक्षा अङ्गीकार करके संयम का पालन वही कर सकता है जो आर्यदेशों में उत्पन्न हुआ हो । जैसे मरुस्थल में कल्पवृक्ष नहीं लग सकता वैसे ही अनार्य देश में उत्पन्न व्यक्ति धर्म में सच्ची श्रद्धा वाला नहीं हो सकता, अतः दीक्षार्थी का पहला गुण यह है कि उसकी उत्पत्ति आर्यदेश में हुई हो । ( २ ) शुद्धजातिकुलान्वित- जिसके जाति अर्थात् मातृपक्ष और कुल अर्थात् पितृपक्ष दोनों शुद्ध हों। शुद्ध जाति और कुल वाला संयम का निर्दोष पालन करता है। किसी प्रकार की भूल होने पर भी कुलीन होने के कारण रथनेमि की तरह सुधार लेता है । (३) क्षीणप्रायाशुभकर्मा - जिस के अशुभ अर्थात् चारित्र में बाधा डालने वाले कर्म क्षीण अर्थात् नष्ट हो गए हों । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षय, क्षयोपशम या उपशम हुए विना कोई भाव चारित्र अंगीकार नहीं कर सकता। ऊपर से दीक्षा ले लेने पर भी शुद्ध संयम का पालन करना उसके लिए असम्भव है । (४) विशुद्धधी - अशुभ कर्मों के दूर हो जाने से जिसकी बुद्धि निर्मल हो गई हो । निर्मल बुद्धि वाला धर्म के तत्त्व को अच्छी तरह 1 समझ कर उसका शुद्ध पालन करता है । ५ ) विज्ञातसंसारनैर्गुण्य - जिस व्यक्ति ने संसार की निर्गुता अर्थात् व्यर्थता को जान लिया हो । मनुष्य जन्म दुर्लभ है, जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है, धन सम्पत्ति चञ्चल है, सांसारिक विषय दुःख के कारण हैं, जिनका संयोग
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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