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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १५३ • wwwmmamiwn mwwwwwwwww. mm ~~ ~ (३) यदि कोई पुरुष साधु को कठोर वचन कहे या मारे पीटे तो उसे अपने पूर्वसंचित कर्मों का फल जान कर समभाव पूर्वक सहन करे, अपनी आत्मा को वश में रख कर चित्त में किसी प्रकार की व्याकुलता न लाते हुए संयम मार्ग में आने वाले कष्टों को जो समभाव पूर्वक सह लेता है वही भिक्षु (साधु) कहलाता है। (४) जो अल्प तथा जीर्ण शय्या आदि से सन्तुष्ट रहना है, शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीपहों को जो समभाव से सहन कर लेता है वही भितु है। (५) जो सत्कार या पूजा आदि की लालसा नहीं रखता, यदि कोई उसे प्रणाम करे अथवा उसके गुणों की प्रशंसा करे तो भी मन में अभिमान नहीं लाता ऐसा संयमी, सदाचारी, तपस्वी, ज्ञानवान् , क्रियावान् और आत्मशोधक पुरुष ही सच्चा भिक्षु है। (६) संयमी जीवन के बाधक कार्यों का त्यागी, दूसरों की गुप्त बात को प्रकाशित न करने वाला, मोह और राग को उत्पन्न करने वाले सांसारिक बन्धनों में न फंसने वाला और तपस्वी जीवन बिताने वाला ही सच्चा भिक्षु है। (७) नाक, कान आदि छेदने की क्रिया, रागविद्या, भूगोल विद्या, खगोल विद्या (ग्रह नक्षत्र देख कर शुभाशुभ बतलाना), स्वमविद्या (स्वमों का फल बतलाना), सामुद्रिक शास्त्र (शरीर के लक्षणों द्वारा मुरव दुःखं बतलाना) अंगस्फुरण विद्या, दण्डविद्या भूगर्भविद्या (जमीन में गड़े हुए धन को जानने की विद्या), पश, पक्षियों की बोली जानना आदि कुत्सित विद्याओं द्वारा जो अपना संयमी जीवन दूषित नहीं बनाता वही सच्चा भिक्षु है। (८)मन्त्रप्रयोग करना, जड़ी बूटी तथा अनेक प्रकार के वैद्यक उपचारोंकोसीख कर काम में लाना, जुलाव देना, वमन कराना, अज्जन बनाना, रोग पाने पर आक्रन्दन फरना आदि क्रियाएं
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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