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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग wwmorrowrwww wwwmar mmmmmmmmmmmmmm सिद्धान्त के अनुसार विचार करने वाला आराधक कहा जाता है उसका विचार सत्य है । जो व्यक्ति सर्वज्ञ के सिद्धान्त से विषरीत विचरता है, जीवादि पदार्थों को एकान्त नित्य आदि बताता है वह विराधक है । उसका विचार असत्य है। जहाँवस्तु को सत्य या असत्य किसी प्रकार सिद्ध करने की इच्छा न हो केवल वस्तु का.खरूप मात्र दिखाया जाय, जैसे- देवदत्त ! घड़ा लामो इत्यादि चिन्तन में वहाँ सत्य या असत्य कुछ नहीं होता।आराधक विराधक की फल्पना भी वहाँ नहीं होती । इस.प्रकार के विचार को असत्यामृषा मनोयोग कहते हैं। यह भी व्यवहार नय की अपेक्षा है। निश्चय नय से तो इसका सत्य या असत्य में समावेश हो जाता है। (५-६-७-८)ऊपर लिखे मनोयोग के अनुसार वचन योग के भी चार भेद हैं- (५) सत्य वचन योग (६) असत्य वचन योग (७) सत्यमृषा वचन योग (८)असत्यामृषा वचन-योग। काय योग के सात भेद (६) औदारिक शरीर काय योग- काय का अर्थ है समूह । औदारिक शरीर पुद्गल स्कन्धों का समूह है, इस लिए फाय है। इस में होने वाले व्यापार को औदारिक शरीर काय योग कहते हैं। यह योग पर्याप्त तिर्यञ्च और मनुष्यों के ही होता है। (१०) औदारिक मिश्र शरीर काय योग-वैक्रिय,आहारक और कार्मण के साथ मिले हुए औदारिक को औदारिक मिश्र कहते हैं । औदारिक मिश्र के व्यापार को औदारिक मिश्र शरीर काय योग कहते हैं। (११) वैक्रिय शरीर काय योग- वैक्रिय शरीर पर्याप्ति के - कारण पर्याप्त जीवों के होने वाला वैक्रिय शरीर का व्यापार वैक्रिय शरीर काय योग है।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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