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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १३७ प्रसन्न हुआ। दोनों हाथ जोड़ कर राजाश्रेणिक उन महामुनीश्वर से इस प्रकार अर्ज करने लगा- हे भगवन् ! आपने मुझे सच्ची अनाथता का स्वरूप बड़ी ही सुन्दरता के साथ समझा दिया। आपका मानव जन्म पाना धन्य है। आपकी यह दिव्य कान्ति, दिव्य प्रभाव, शान्त मुरवमुद्रा, उज्वल सौम्यता धन्य हैं । जिनेश्वर भगवान् के सत्यमार्ग में चलने वाले आप वास्तव में सनाथ हैं, सबान्धव हैं। हे संयमिन् ! अनाथ जीवों के आप ही नाथ हैं। सब प्राणियों के आप ही रक्षक हैं। हे क्षमा सागर महापुरुष । मैंने आपके ध्यान में विघ्न (भंग) डाल कर और भोग भोगने के लिए आमन्त्रित करके आपका जो अपराध किया है उसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ।' इस प्रकार राजाओं में सिंह के समान श्रेणिक राजाने श्रमण सिंह (साधुओं में सिंह के समान ) अनाथी मुनि की परम भक्ति पूर्वक स्तुति की। मुनि का धर्मोपदेश सुन कर राजाश्रेणिक अपने अन्तःपुर (सब रानियाँ और दास दासियाँ) और सकल कुटुम्वी जनों सहित मिथ्याल का त्याग कर शुद्ध धर्मानुयायी बन गया। __ अनाथी मुनि के इस अमृतोपम समागम से राजा श्रेणिक का रोम रोम प्रफुल्लित हो गया। परम भक्ति पूर्वक मुनीश्वर को वन्दना नमस्कार करके अपने स्थान को चला गया। तीन गुप्तियों से गुप्त, ती इण्डों (मनदण्ड, वचन दण्ड और कायदण्ड) से विरक्त, गुणों के भण्डार अनाथी मुनि अनासक्त भाव से अप्रतिवन्ध विहार पूर्वक इस पृथ्वी पर विचरने लगे। साधुता में ही सनाथता है। श्रादर्श त्याग में ही सनायता है। आसक्ति में अनायताहै। भोगों में ग्रासक्त होना अनाथता है और इच्छा तथा वासना की परतन्त्रता में भी अनाथता है। अनाथता को छोड करसनाथ होनाअपने भाप ही अपना मित्र बनना प्रत्येक
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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