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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१) हे राजन् ! बहुत से पुरुष निर्ग्रन्थ धर्म को अंगीकारतो कर लेते हैं किन्तु परीपह और उपसगों के आने पर कायर बन जाते हैं और साधुधर्म का सम्यक् पालन नहीं कर सकते । यह उनकी अनाथता है। (२) जो कोई पहले महाव्रतों को ग्रहण करके बाद में अपनी असावधानता एवं प्रमादवश उनका यथोचित पालन नहीं करता और अपनी आत्मा का निग्रह न कर सकने के कारण इन्द्रियों के विषयों में आसक्त बन कर रसलोलुप बन जाता है। ऐसा भिक्षु रागद्वेष रूपी संसार के बन्धनों का मूलोच्छेदन नहीं कर सकता क्योंकि किसी भी वस्तु को छोड़ देना सरल है किन्तु उसकी आसक्ति को दूर करना बहुत मुश्किल है। (३) ईर्या (उपयोग पूर्वक चलना), भाषा (उपयोग पूर्वक निर्दोष भाषा बोलना), एषणा (निर्दोष भित्ता आदि ग्रहण करने की वृत्ति), पात्र, कम्बल, वस्त्रादि को यतनापूर्वक उठाना, रखना तथा कारणवशात् वची हुई अधिक वस्तु को तथा मल मूत्र आदि त्याज्य वस्तुओं को यतना पूर्वक निर्दोष स्थान में परठना, इन पॉच समितियों का जो साधु पालन नहीं करता वह वीतराग प्ररूपित धर्म का आराधन नहीं कर सकता। (४)जो बहुत समय तक साधुव्रत की क्रिया करके भी अपने व्रत नियमों में अस्थिर हो जाता है तथा तपश्चर्या आदि अनुष्ठानों से भ्रष्ट हो जाता है ऐसा साधु बहुत वर्षों तक त्याग, संयम, केशलोच श्रादि कष्टों द्वारा अपने शरीर को सुखाने पर भी संसार सागर को पार नहीं कर सकता। (५) ऐसा साधु पोली मुट्ठी अथवा खोटे रुपये की तरह सार (मूल्य) रहित हो जाता है, जैसे वैडूर्यमणि के सामने काच का टुकड़ा निरर्थक (व्यर्थ) है वैसे ही ज्ञानी पुरुषों के सामने वह साधु
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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