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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला minn सनाथ के परमार्थ एवं असली रहस्य को न तो जान ही सका है और न समझ ही सका है। इसीसे तुझे सन्देह हो रहा है। मुझे अनाथता का ज्ञान कहाँ और किस प्रकार हुआ और मैंने दीक्षा क्यों ली, हे राजन् ! इस सर्व वृत्तान्त को तू ध्यान पूर्वक सुन प्राचीन नगरों में सर्वोत्तम कोशांवी नाम की एक नगरी थी। वहाँप्रभूतधनसञ्चय नाम के मेरे पिता रहते थे। एक समय तरुण अवस्था में मुझे ऑख की अतुल पीड़ा हुई और उस पीड़ा के कारण मेरे सारे शरीर में दाहज्वर हो गया।जैसे कुपित हुआ शत्र मर्मस्थानों पर अति तीक्ष्ण शस्त्रों द्वारा प्रहार कर घोर पीड़ा पहुँचाता है वैसी ही तीव्र मेरी ऑरख की पीड़ा थी। वह दाहज्वर की दारुण पीड़ा इन्द्र के वज्र की तरह मेरी कमर, मस्तक तथा हृदय को पीड़ित करती थी। उस समय वैद्यक शास्त्र में अति प्रवीण, जड़ी बुटी तथा मंत्र तंत्र आदि विद्या में पारंगत, शास्त्र विचक्षण तथा औषधि करने में अतिदक्ष अनेक वैद्याचार्य मेरे इलाज के लिये आये। उन्होंने अनेक प्रकार से मेरी चिकित्सा की किन्तु मेरी पीड़ा को शान्त करने में वे समर्थन हुए। मेरे पिता मेरे लिए सव सम्पत्ति लगा देने को तय्यार थे किन्तु उस दुःख से छुड़ाने में तो वे भी असमर्थ ही रहे । मेरी माता भी मेरी पीड़ा को देख कर दुखित एवं अतिव्याकुल हो जाती थी किन्तु दुःख दूर करने में वह भी असमर्थ थी। मेरे सगे छोटे और बड़े भाई तथा सगी बहनें भी मुझे उस दुःख से न बचा सकी। मुझ पर अत्यन्त स्नेह रखने वाली पतिपरायणा मेरी पत्नी ने सब शृङ्गारों का त्याग कर दिया था। रात दिन वह मेरी सेवा में लगी रहती, एक क्षण के लिये भी वह मेरेसे दुरन होती थी किन्तु अपने आँसुओं से मेरे हृदय को सिंचन करने के सिवाय वह भी कुछ न कर सकी। मेरेसज्जन स्नेही और कुटुम्वी जन भी मुझे उस दुःख से न छुड़ा सके यही मेरी अनाथता थी।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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