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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ११३ क्योंकि उनमें रहा हुआ जीव उन्हें छोड़ता ही नहीं। दूसरे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें तक के जीव कम से कम अन्तर्मुहूर्त में और उत्कृष्ट अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल में एक बार छोड़े हुए गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं। बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान को छोड़ कर जीव फिर इन्हें प्राप्त नहीं करता। वह सिद्ध हो जाता है इसी लिए इन गुणस्थानों में अन्तर नहीं होता। _ (२८)अल्पबहुत्व द्वार-ग्यारहवें गुणस्थान वाले जीव अन्य सभी गुणस्थान वाले जीवों से अल्प हैं। प्रत्येक गुणस्थान में दो प्रकार के जीव होते हैं-(१) प्रतिपद्यमान-किसी विवक्षित समय में उसगुणस्थान को प्राप्त करने वाले। (२)पूर्वप्रतिपन्न-विवक्षित समय से पहले जो उस गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं । ग्यारहवें गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान २४ और पूर्वप्रतिपन्न एक, दों या तीन आदि होते हैं। बारहवें गुणस्थान वाले उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान १०८ और पूर्वपतिपन्न शतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ तक) पाए जाते हैं, इस लिए ग्यारहवें गुणस्थान वालों से इनकी संख्या संख्यातगणी कही जाती है। उपशम श्रेणी वाले जीव उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान ५४ और पूर्वमतिपन एक, दो, तीन आदि माने गए हैं। क्षपक श्रेणी वाले प्रतिपद्यमान १०८और पूर्वप्रतिपन्नशतपृथक्त्व माने गए हैं। उपशम और क्षपक दोनों श्रेणियों वाले सभी जीव आठवें, नवें और दसवें गुणस्थान में वर्तमान होते हैं, इस लिए इन तीनों गुणस्थान वाले जीव आपस में समान हैं, किन्तु बारहवें गुणस्थान वालों की अपेक्षा विशेषाधिक हैं। चौदहवें गुणस्थान वाले भवस्थ अयोगी वारहवें गुणस्थान वालों के बराबर हैं। सयोगी केवली अर्थात् तेरहवें गुणस्थान वाले जीव उन से संख्यातगुणे हैं। वे पृथक्त्व करोड़ अर्थात् जघन्य दो करोड़ और उत्कृष्ट नौ करोड़ होते हैं।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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