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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १०६ में मठ वातें होती है - असंयती, अपचक्खाणी, अमिरत, असंवृत, अपण्डित, अजागृत, अधर्मी, श्रधर्मव्यवसायी । पाँचवें में आठ बोल पाये जाते हैं- संयतासंयती, पचक्खाणापचक्खाणी, विरताविरत, संवृतासंकृत, बालपण्डित, सुप्त जागृत, धर्माधर्मी, धर्माधर्म व्यवसायी । छठे से लेकर चौदहवें तक आठ गुण होते हैं- संयंती, पचक्खाणी, विरत, संवृत, पण्डित, जागृत, धार्मिक और धर्मव्यवसायी । (१६) योग द्वार- पहले, दुसरे और चौथे गुणस्थान में आहारक और आहारक मिश्र को छोड़ कर १३ योग पाये जाते हैं। तीसरे गुणस्थान में औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण इन पाँच योगों को छोड़ कर बाकी दस पाये जाते हैं । पाँचवें में आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण के सिवाय बारह योग पाये जाते हैं। छठे में कार्मरण के सिवाय १४ योग पाये जाते हैं। सातवें में तीन मिश्र और कार्मण को छोड़ कर ग्यारह योग पाए जाते हैं। आठवें से लेकर बारहवें तक नौ योग पाए जाते हैं - चार मनोयोग, चार वचन योग और एक श्रदारिक । तेरहवें में पाँच अथवा सात- सत्यमनोयोग, व्यवहार मनोयोग, सत्य वचन योग, व्यवहार वचन योग और औदारिक । सात मानने पर औदारिक मिश्र और कार्मण बढ़ जाते हैं। चौदहवें गुणस्थान में योग नहीं होता। (१७) उपयोग द्वार - पहले और तीसरे में छ: उपयोग पाए जाते हैं - तीन अज्ञान और पहले तीन दर्शन। दूसरे, चौथे और पाँचवें में छ:- तीन ज्ञान और तीन दर्शन । छठे से बारहवें तक सात- चार ज्ञान और तीन दर्शन । तेरहवें और चौदहवें में दोकेवल ज्ञान और केवल दर्शन । (१८) लेश्या द्वार - पहले से छठे तक छहों लेश्याएं पाई जाती । सातवें में पिछली तीन । आठवें से बारहवें तक शुक्ललेश्या ।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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