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________________ श्री जैन सिद्धान्त घोल संग्रह, पांचवां भाग १०५ को जीव चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य (अन्त से पहले के) समय में स्तिबुकसंक्रम द्वारा ही देता है। ___ (र्मग्रन्थ दूसरा) ___ गुणस्थानों का स्वरूप तथा कर्मों के पन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता ऊपर बताए गए हैं। १४ गुणस्थान के थोकड़े में प्रत्येक गुणस्थान से सम्बन्ध रखने वाले २८ द्वार हैं। उनमें से (१) नामद्वार (२) लक्षण द्वार (३) बन्धद्वार (४) उदय द्वार (५) उदीरणा द्वार और (६) सत्ता द्वार दूसरे कर्मग्रन्थ के अनुसार ऊपर बताए जा चुके हैं। वाकी द्वार संक्षेप से थोफड़े के अनुसार दिए जाते हैं- (७)स्थिति द्वार-गुणस्थान विशेष में जीव के रहने की कालमर्यादा को स्थिति कहते हैं। पहले गुणस्थान में जीवों की स्थिति तीन प्रकार की होती है- अनादि अपर्यवसित (जिसकी आदि भी नहीं है और अन्त भी नहीं है)। अभव्य या कभी मोत न जाने वाले भव्य जीव अनादिकाल से पहले गुणस्थान में हैं और अनन्त काल तक रहेंगे, उनकी अपेक्षा अनादि अपर्यवसित पहलाभंग है। (२) अनादि सपर्यवसित (जिसकी आदि नहीं है किन्तु अन्त है) जो भव्य जीव अनादि काल से मिथ्यादृष्टि हैं किन्तु भविष्य में मोक्ष प्राप्त करेंगे, उनकी अपेक्षा दूसरी स्थिति है। (३) सादिसपर्यवसित अर्थात जिसकी आदि भी है और अन्त भी है। जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ कर गिरता हुआ फिर पहले गुणस्थान में भा जाता है उसकी अपेक्षा से तीसराभंग है। तीसरे भंगवालाजीव अधिक से अधिक देशोन अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन तक पहले गुणस्थान में रह सकता है। दूसरे गुणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः आवलिका की है। तीसरे गुणस्थान कीजघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। चौथे गुणस्थान की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ६६ सागरोपम झाझेरी । पाँचवें गुणस्थान की जघन्य अन्तर्मुहूर्त
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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