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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ८७ सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं। अन्त में केवली भगवान् मूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान के वल से सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं । इस प्रकार सब योगों का निरोध हो जाने से केवलज्ञानी भगवान् अयोगी बन जाते हैं और मुमक्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान की सहायता से अपने शरीर के भीतरी पोले भाग को अर्थात् मुख, उदर आदि को आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं। इसके बाद अयोगी केवली भगवान् समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं और मध्यम रीति से पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय का 'शैलेशीकरण' करते हैं । सुमेरु पर्वत के समान निश्चल अवस्था भथवा सर्व संवर रूप योग निरोध अवस्था को 'शैलेशी' कहते हैं । शैलेशी अवस्था मे वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म की गुणश्रेणी से और आयुकर्म की यथास्थित श्रेणी से निर्जरा करना शैलेशी करण' है। शैलेशीकरण को प्राप्त करके अयोगी केवलज्ञानी उसके अन्तिम समय में वेदनीय,नाम,गोत्र और आयु इन चारभवोपग्राही (जीव कोसंसार में वाँध कर रखने वाले) कर्मों को सर्वथा तय कर देते हैं उस समय उनके श्रात्मप्रदेश इतने संकुचित हो जाते हैं कि वे उनके शरीर के ३ भाग में समाजाते हैं । उक्त कर्मों का क्षय होते ही वे एक समय में ऋजु गति से ऊपर की ओर सिद्धि क्षेत्र में चले जाते हैं । सिद्धि क्षेत्रलोक के ऊपर के भाग में वर्तमान है। इसके आगे किसीआत्मा या पुद्गल की गति नहीं होती । इसका कारण यह है कि प्रात्मा को या पुद्गल को गति करने में धर्मास्तिकाय की अपेक्षा होती है और लोक के आगे धर्मास्तिकाय नहीं है। कर्ममल के हट जाने से शद्ध आत्मा की ऊर्ध्वगति इस प्रकार होती है जिस प्रकार कि मिट्टी के लेपों से युक्त तुम्बालेपों के हट जाने से जल पर चला जाता है।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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