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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग www ७६ ww~ (ख) बँधे हुए ज्ञानादि कर्मों के प्रचुर रस ( फल देने की तीव्र शक्ति) को अपवर्तना करण के द्वारा मन्द कर देना रसघात है। (ग) जिन कर्मद लिकों का स्थितिघात किया जाता है अर्थात् जो कर्मलिक अपने अपने उदय के नियत समय से हटाए जाते हैं उनको प्रथम के अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना गुणश्रेणी है। स्थापना का क्रम इस प्रकार है - उदय समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त के जितने समय होते हैं, उनमें से उदयावलिका के समय को छोड़ कर शेष जितने समय रहते हैं उनमें से प्रथमसमय में जो दलिक स्थापित किए जाते हैं वे कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित किए जाने वाले दलिक प्रथमसमय में स्थापित दलिकों से असंख्यात गुण अधिक होते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के चरम समयपर्यन्त पर पर समय में स्थापित किए जाने वाले दलिकों से संख्यातगुण ही समझने चाहिएं। (घ) जिन शुभ कर्मप्रकृतियों का बन्ध अभी हो रहा है उनमें पहले बँधी हुई अशुभ प्रकृतियों का संक्रमण कर देना अर्थात् पहले बँधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बँधने वाली शुभ प्रकृतियों के रूप में परिणत कर देना गुणसंक्रमण कहलाता है । गुणसंक्रमण का क्रमसंक्षेप में इस प्रकार है- प्रथम समय में अशुभ प्रकृतियों के जितने दलिकों का शुभ प्रकृतियों में संक्रमण होता है, उनकी अपेक्षा दूसरे समय में असंख्यात गुण अधिक दलिकों का संक्रमण होता है। इस प्रकार जब तक गुणसंक्रमण होता रहता है तब तक पूर्व पूर्व समय में संक्रामित दलिकों से उत्तर उत्तर समय में असंख्यात गुण अधिक दलिकों का ही संक्रमण होता है । (ङ) पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्पस्थिति के कर्मों को बाँधना 'अपूर्वस्थितिबन्ध' कहलाता है। स्थितिघात आदि पॉच बातें यद्यपि पहले के गुणस्थानों में भी
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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