SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ 'श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला " अपने या दूसरे के लिए बने हुए भोजन आदि का उपभोग करना 'प्रतिसेवनानुमति है। पुत्र आदि किसी सम्बन्धी के द्वारा किए गए पापकर्म को सुन कर भी पुत्र आदि को उस पापकर्म से न रोकना 'प्रतिश्रवणानुमति' है।पुत्र आदि अपने सम्बन्धियों के पापकर्म में प्रवृत्त होने पर उनके ऊपर सिर्फ ममता रखना अर्थात् न तो पापकर्मों को सुनना और न उनकी प्रशंसा करना 'संवासानुमति' है। जोश्रावक पापजनक आरम्भों में किसी प्रकार से योग नहीं देता, केवल संवासानुमति को सेवता है वह अन्य सब श्रावकों से श्रेष्ठ है। (६) प्रमत्तसंयतगुणस्थान- जो जीवपापजनक व्यापारों से सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं वे ही संयत (मुनि) हैं। संयत भीजव तक प्रमाद का सेवन करते हैं तब तक प्रमत्तसंयत कहलाते हैं और उनका स्वरूप विशेष प्रमत्तसंयत गुणस्थान है । संयत (मुनि) के सावध व्यापार का सर्वथा त्याग होता है। वे संवासानुमति का भी सेवन नहीं करते। छठे गुणस्थान से लेकर आगे किसी गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कपाय का उदय नहीं रहता। इसी लिए वहाँ सावध व्यापार का सर्वथा त्याग होता है। (७)अप्रमत्तसंयतगणस्थान-जो मुनि निद्रा, विषय, कपाय, विकथा आदिप्रमादों कासेवन नहीं करते वे अप्रमत्तसंयत हैं और उनका स्वरूप विशेष अप्रमत्तसंयतगुणस्थान है। प्रमाद सेवन से ही श्रात्मा अशुद्ध होता है इस लिए सातवें गुणस्थान से आत्मा उत्तरोत्तर शुद्ध होने लगता है। सातवें गुणस्थान से लेकर भागे सभी गुणस्थानों में वर्तमान मुनि प्रमाद का सेवन नहीं करते, वे अपने खरूप में सदा जागृत रहते हैं। (८)नियट्टि (निवृत्ति) वादर गुणस्थान-जिस जीव के अनन्ता. नुवन्धी,अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया तथा लोभ चारों निवृत्त हो गए हों उसके स्वरूप विशेप को
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy