SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला - में उनको समूल नष्ट करके कैवल्य अथवा मुक्ति प्राप्त कर लेता है। कोई कोई आत्मा राग द्वेष की प्रबलता के कारण एक आध बार हार भी जाता है तो फिर दुगुने उत्साह से प्रवृत्त होता है। पुराने अनुभव के कारण बढ़े हए ज्ञान और वीर्य से वह राग द्वेष को दबाता है। जैसे जैसे दवाने में सफल होता है उसका उत्साह और ज्ञान बढ़ता जाता है। उत्साहद्धि के साथ साथ आनन्द भी बढ़ता जाता है । इस प्रकारजीव राग द्वेष के बन्ध को निर्बल करता हुआ अपने निर्मल स्वरूप को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता जाता है। इस अवस्थाको आध्यात्मिक विकास की अवस्था कहते हैं। (ग) आध्यात्मिक विकास जब पूर्ण हो जाता है तो तीसरी अवस्था आती है। इस अवस्था में जीव अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इसी को सिद्धि, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण आदि शब्दों से कहा जाता है। वैदिक दर्शन उपनिषद् तथा अध्यात्म शास्त्र के दूसरे ग्रन्थों में आत्मा के विकासक्रम को भी बताया गया है, किन्तु इसका व्यवस्थित तथा साङ्गोपाङ्ग वर्णन योग दर्शन पर रचे हुए व्यासभाष्य आदि में है। दूसरे ग्रन्थों में इतना पूर्ण नहीं है, इस लिये वैदिक दर्शनों में आत्मा के विकासक्रम की मान्यता इन्हीं ग्रन्थों से बताई गई है। __ योगदर्शन में महर्षि पतञ्जलि ने मोक्षसाधन के रूप में योग का वर्णन किया है। योग का अर्थ है आध्यात्मिक विकासक्रम की भूमिकाएं । योग जहॉ से प्रारम्भ होता है वह आत्मविकास की पहली भूमिका है। योग की पूणेता के साथ ही आत्मविकास भी पूर्ण हो जाता है। योग प्रारम्भ होने से पहले की अवस्था आध्यात्मिक अविकास की अवस्था है। योग भाष्यकार महर्षि व्यास ने चित्त की पाँच भूमियाँ वताई हैं
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy