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________________ ६४ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला यह एक प्राकृतिक नियम है कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव को माप्त करने का प्रयत्न करती है। जब तक वह अपने स्वभाव को पूर्णतया माप्त न कर ले तब तक उसे शान्ति नहीं मिलती अर्थात् तब तक उस में स्वभाव को प्राप्त करने की प्रगति बराबर होती रहती है।पानी स्वभाव से ठण्डा होता है। अग्नि आदि के कृत्रिम उपायों से गरम होने पर भी वह शीघ्र अपने स्वभाव में आने का प्रयत्न करता है और ठण्डा हो जाता है। अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख जीव का स्वभाव है, इस लिए जीव भी उन्हें प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्न करता रहता है। जब तक अपने स्वभाव में लीन नहीं होता तब तक उसे शान्ति नहीं मिलती। दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि जीव मुख तथा ज्ञान को चाहता हुआ भी उनकी प्राप्ति के वास्तविक उपाय को नहीं जानता । जैसे रोगी कुपथ्य से होने वाले भयङ्कर परिणाम को भूल कर उसे सेवन फरने में ही सुख समझता है और सेवन करने के बाद भयङ्कर कष्ट उठाता है, उसी प्रकार जीव कामभोगों में मुख समझ कर उनका सेवन करता है और फिर भयङ्कर कष्ट उठाता है। वास्तविक सख का उपाय न जानने के कारण ही जीव अनन्त संसार में भटकता रहता है। अज्ञान और द्वेष के प्रबल संस्कारों के कारण वह वास्तविक सुख का अनुभव नहीं कर सकता। कभी थोड़ा सा भान होने पर भी वह सुख की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति नहीं कर सकता। अज्ञान चेतना का विरोधी है । इस लिए जब तफ अज्ञान की तीव्रता रहती है तब तक चेतना का स्फुरण वहुत मन्द होता है अर्थात् तब तक खरे सुख और उसके साधनों का भान नहीं होता। किसी विषय में सुख की धारणा करके आत्मा प्रवृत्त होता है, किन्तु परिणाम में निराशा होने से दूसरे विषय की तरफ दौड़ता है। दूसरे विषय में निराशा होने पर तीसरे की ओर झुकता है। जिस तरह
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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