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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १ wwwwwwwwwwwwmro बाद उदय में आने वाला होता है। जिस प्रकार कोद्रव धान्य (कोदों नाम के धान्य) को औषधियों से साफ करने पर इतना शुद्ध हो जाता है कि खाने वाले को बिल्कुल नशा नहीं आता । दूसरा भाग अर्द्धशुद्ध और तीसराअशुद्ध रह जाता है। इसी द्वितीय स्थितिगत मिथ्यात्व मोहनीय के तीन पुओं में से एक पुञ्ज इतना शद्ध हो जाता है कि उस में सम्यक्त्वघातक रस (सम्यक्त्व को नाश करने की शक्ति) नहीं रहता। दूसरा पुञ्ज प्राधा शुद्ध और तीसरा अशुद्ध ही रह जाता है। ___ औपशमिक सम्यक्त्व पूर्ण होने पर जीव के परिणामानुसार उक्त तीन पुओं में से कोई एक उदय में आता है। परिणामों के शुद्ध रहने पर शुद्ध पुञ्ज उदय में आता है। उस से सम्यक्त्व का घात नहीं होता । उस समय प्रकट होने वाले सम्यक्त्व को सायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । जीव के परिणाम अर्द्ध विशुद्ध रहने पर दूसरे पुञ्ज का उदय होता है और जीव मिश्रदृष्टि कहलाता है। परिणामों के अशुद्ध होने पर अशुद्ध पुञ्ज का उदय होता है और उस समय जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। __ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपशान्ताद्धा में जीव शान्त, प्रशान्त, स्थिर और पूर्णानन्द हो जाता है। जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः आवलिकाएं वाकी रहने पर किसी किसी औपशमिक सम्यक्त्व वाले जीव के चढ़ते परिणामों में विघ्न पड़ जाता है अर्थात् उसकीशान्ति भङ्ग हो जाती है। उस समय अनन्तानुवन्धी काय का उदय होने से जीव सम्यक्त्व परिणाम को छोड कर मिथ्यात्व की ओर झुक जाता है। जब तक वह मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता अर्थात् जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः आवलिकाओं तक सास्वादन भाव का अनुभव करता है,उस समय जीव सास्वादन सम्यग्यदृष्टि कहा जाता है। औपशमिक सम्यक्त्व वाला जीव ही सास्वादन सम्यग्दृष्टि हो
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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