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________________ श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ५६ unorrunun बन जाता है, इसी प्रकार जीव भीअनन्त काल से दुःख सहते सहते कोमल और शुद्ध परिणामी वन जाता है। परिणामशुद्धि के कारण जीव आयु फर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम एक कोडाकोड़ी सागरोपम जितनी कर देता है। इसी परिणाम को शास्त्र में यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। यथामवृत्तिकरण वाला जीव राग द्वेष की मजबूत गांठ के पास तक पहुँच जाता है, किन्तु उसे भेद नहीं सकता, इसी को ग्रन्थिदेश प्राप्ति कहते हैं। कर्म और राग द्वेष की यह गांठ क्रमशः दृढ और गूढ़ रेशमीगाँठ के समान दुर्भेद्य है। यथाप्रत्तिफरण अभव्य जीवों के भी हो सकता है। कर्मों की स्थिति को कोडाकोड़ी सागरोपम के अन्दर करके वे भी ग्रन्थिदेश को माप्त कर सकते हैं किन्तु उसे भेद नहीं सकते। __ भव्य जीव जिस परिणाम से राग द्वेष की दुर्मेध ग्रन्थिको तोड़ कर लांघ जाता है,उस परिणाम को शास्त्र में भपूर्वकरण कहते हैं। इस प्रकार का परिणाम जीव को बारबार नहीं आता, कदाचित् ही आता है, इसी लिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं । यथामत्तिकरण तो अभव्य जीवों को भीअनन्त बार आता है किन्तु अपूर्वकरण भव्य जीवों को भी अधिक बार नहीं आता। अपूर्वकरण द्वारा राग द्वेष की गांठ टूटने पर जीव के परिणाम अधिक शुद्ध हो जाते हैं,उस समय अनिवृत्तिकरण होता है । इस परिणाम को प्राप्त करने पर जीव सम्यक्त्व माप्त किए बिना नहीं लौटता। इसी लिए इसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। उस समय जीव की शक्ति और बढ़ जाती है। श्रनित्तिकरण की स्थिति अन्तमहूर्त प्रमाण है । इस का एक भागशेष रहने पर अन्तःकरण की क्रिया शुद्ध होती है अर्थात् अनिवृत्तिकरण के अन्त समय में मिथ्यात्व मोहनीय के कर्म दलिकों को आगे पीछे कर दिया
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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