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________________ ३० श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला ___जीव शब्द अर्थ वाला है, क्योंकि व्युत्पत्ति वाला होते हुए शुद्धपद है। जो व्युत्पत्ति वाला होते हुए शुद्ध पद होता है उसका कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है जैसे घट शब्द । शरीर, देह आदि तथा जीव प्राणी आदि शब्दों में भेद होने से इन्हें समानार्थक नहीं कहा जा सकता । शरीर और जीव के गुणों में भेद होने के कारण भी इन्हें समानार्थक नहीं कहा जा सकता । आत्मा शरीर और इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि देह के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा के द्वारा उपलब्ध वस्तु का स्मरण होता है। जैसे खिड़की से देखा गया पुरुष खिड़की के न रहने पर भी स्मृति का विषय होता है, इस लिए पुरुष खिड़की से भिन्न है। भगवान ने फिर कहा-'जीव है' यह वचन सत्य है, क्योंकि मेरा वचन है। जैसे-अवशेष वचन । अथवा 'जीव है यह वचन सत्य है क्योंकि सर्वज्ञ का वचन है। जैसे आपके माने हुए सर्वज्ञ का वचन । मेरा वचन सत्य और निर्दोष है, क्योंकि भय, राग, द्वेष और अज्ञान से रहित हैं। जो वचन भय आदि से रहित है वह सत्य होता है। जैसे मार्ग पूछने पर उसे जानने वाले शुद्ध हृदय व्यक्ति द्वारा दिया गया ठीक उत्तर। । शङ्का-आप सर्वज्ञ हैं तथा भयादि से रहित वचनों वाले हैं, यह कैसे कहा जा सकता है। समाधान-मैं सभी सन्देहों को दूर कर सकता हूँ तुम जो पूछो उसका उत्तर दे सकता हूँ तथा सर्वथा निर्भय हूँ। अपने ज्ञान द्वारा लोकालोक को देखता हूं तथा अनन्त शक्ति सम्पन मेरी मात्मा अजर अमर है। इस लिए मेरे में उपरोक्त गुण हैं। इत्यादि युक्तियों से आत्मा की सिद्धि हो जाती है । उसका लक्षण वीर्य और उपयोग है। संसारी और सिद्ध अथवा त्रस और
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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