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________________ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला ; सार्थवाह के पुत्र मयूरी की चेष्टाओं से समझ गए कि इन कच्छ में कोई ऐसी वस्तु है जिसकी रक्षा के लिए मयूरी चिन्तित है । लताओं के अन्दर ध्यान पूर्वक देखने पर उन्हें दो अण्डे दिखाई दिए । उन्हें लेकर वे अपने घर चले आए। अण्डे नौकरों को दे कर कहा कि इनकी पूरी साल सम्भाल रखना । इनसे निकले हुए मोरों से हम खेला करेंगे । ४५४ उनमें से सागरदत्त का पुत्र सदा शङ्कित रहता था कि उसके अण्डे से मोर बनेगा या नहीं । शङ्काशील होने के कारण वह रोज अपने अण्डे के पास आकर उसे घुमा फिरा कर देखता । अन्दर कुछ है या नहीं, यह जानने के लिए उसे कान से लगा कर हिलाता तथा ऐसी चेष्टाएं करता जिनसे उसे बाधा पहुँचती । इस प्रकार हिलने डुलने से अण्डा सूखने लगा । यह देख कर सागरदत्त के पुत्र को बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वह सोचने लगाशङ्कित होने के कारण मैंने स्वयं उसे खराब कर दिया । जिनदत्त का पुत्र निःशङ्क होकर उसे विधिपूर्वक पालने लगा । समय पूरा होने पर उसमें से मयूर का बच्चा निकला । उसे देख कर जिमदत्त का पुत्र बहुत प्रसन्न हुआ । एक मोर पालने वाले को बुला कर उसे नाचना सिखाने के लिए सौंप दिया। थोड़े दिनों बाद वह सभी प्रकार के नृत्य सीख कर तैयार हो गया। नगर के सभी लोग उसे देख कर प्रसन्न होते। जिनदच के पुत्र ने शङ्का रहित होने के कारण अपने मनोरथ को पूरा कर लिया और सागरदत्त के पुत्र ने शङ्कित होने के कारण उसे बिगाड़ लिया । इसी प्रकार जो जीव शङ्कारहित होकर सम्यक्त्व का पालन करता है, वह मोक्ष रूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है। शास्त्रों में कहा हैजिणवर भासिय भाषेसु, भावसच्चेस भावो मइमं । यो कुज्जा संदेहं संदेहोऽणत्थ हेउत्ति ॥
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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