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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४३५ एक बार उसी नगर के वाहर उधान में सुस्थित नाम के प्राचार्य पधारे। उनका सुव्रत नामक शिष्य गोचरी के लिए नगर में गया। वहॉ द्विजपुत्र की अपमान भरी बातें सुनीं । गुरु के पास आकर सुव्रत ने सारी बातें कहीं और पूछा-यदि आप आज्ञादें तो मैं राजसभा में जाकर सब लोगों के सामने इसका पाण्डित्यगर्वदूर करूं। गुरु ने कहा-हमारे लिए यह उचित नहीं है। हमारा धर्म क्षमाप्रधान है। विवाद करने से उसमें बाधा पड़ती है। उसकी बातों को अपमान न मानते हुए आक्रोश परीपह को सहन करना चाहिए। चाद विवाद से कभी सत्य वस्तु की सिद्धि नहीं होती। कहा भी है वादांश्च प्रतिवादांश्च, वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति,तिलपीलकवद्गती॥ जैसे कोल्हू का बैल चलते रहने पर भी किसी दूसरे स्थान पर नहीं पहुंचता । घूम घाम कर वहीं आजाता है। उसी प्रकार विना निश्चय वाले वाद विवादों को करने वाले व्यक्ति भी किसी निश्चित सिद्धान्त पर नहीं पहुंचते। • गुरु के इस प्रकार मना करने पर सुत्रत मुनि चुप रह गए। शाख में उन्होंने पढ़ा कि सामर्थ्य होने परतीर्थ की प्रभावना अवश्य करनी चाहिए । कहा भी है पावयणी धम्मकही, वाई णेमित्तिओ तवस्सीय। विजासिद्धोय कई, अष्टेवय पभावगा भणिया॥ अर्थात्- प्रावचनी, धर्मकथा करने वाला, वादी, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्वान् सिद्ध (लब्धि सम्पन्न मुनि) और कवि ये आठ प्रभावक कहे गए हैं , यह पढ़ कर मन में निश्चय करके वह गुरु के पास गया और वन्दना करके पूछा । दुबारा पूछने से उसका विशेष आग्रह जान कर गुरु ने मना नहीं किया। सुव्रत मुनि ने यज्ञदेव के पास जाकर कहा- भद्र । तुम भोले
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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