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________________ श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग ४०७ (५) प्रमादी जीव धन से इस लोक और परलोक में शरण प्राप्त नहीं कर सकतें। जिस तरह अन्धेरी रात में दीपक के बुझ जाने पर गाढ़ अन्धकार फैल जाता है, उसी तरह प्रमादी पुरुष न्याय मार्ग ( वीतराग मार्ग) को देख कर भी मानो देखता ही न हो इस तरह व्यामोह में जा फंसता है । (६) जागृत, निरासक्त, बुद्धिमान और विवेकी पुरुष जीवन का विश्वास न करे, क्योंकि जीवन चञ्चल है और शरीर निर्बल है इसलिये भारएड पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर विचरे । ( ७ ) थोड़ी सी भी आसक्ति जाल के समान है ऐसा मान कर सदा सावधान होकर चले । जहाँ तक इस शरीर से लाभ होता हो वह तक संयमी जीवन का निर्वाह करने के लिये शरीर की साल सम्भाल करे किन्तु अपना अन्तकाले समीप आया जान कर इस अशुचिमय मलिन शरीर का समाधिमरण पूर्वक त्याग करे । (८) जैसे सधा हुआ और कवचधारी योद्धा युद्ध में विजय प्राप्त करता है उसी तरह साधक मुनि अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति और वासनाओं को रोकने से मुक्ति प्राप्त करता है । पूर्वकाल (श्रसंख्य वर्षो का लम्बा काल प्रमाण ) तक भी जो मुनि श्रप्रमत रह कर विचरता है वह उसी भव से शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है। पतन के दो कारण हैं- (१) स्वच्छन्द प्रवृत्ति और प्रमाद । मुमुक्षु (मोक्ष की अभिलापा रखने वाले) को चाहिए कि इन्हें सर्वथा दूर कर दे तथा श्रर्पयता ( गुरु की आज्ञानुसार प्रवृचि करना ) और सावधानता को प्राप्त करे । (६) शाश्वत (नियत) वादियों की यह मान्यता है कि जो वस्तु पहले न मिली हो पीछे से भी वह नहीं मिल सकती। इस विषय में विवेक करना उचित है अन्यथा उस मनुष्य को शरीर का विरह होते समय अथवा आयुष्य के शिथिल होने पर खेद करना पड़ता है ।
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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