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________________ श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग ४०५ है, फिर ऐसे शरीर में काम राग करना पुद्धिमान पुरुषों को कैसे शोभा देता है। ऐसा विवेक पूर्वक विचार करने से काम राग पर विजय प्राप्त होती है। (6) मत्सर-इसरों की सम्पत्ति और उन्नति को देख कर हृदय में जलते रहना मत्सर कहलाता है। इसी को डाह और ईपी भी कहते हैं। चित्त में दमरों के प्रति किमी प्रकार बुरे विचार न करने से मत्सर पर विजय प्राप्त होती है। (१०) विषय-पॉच इन्द्रियों के विषय भृत शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शमादि में श्रासनि भाव रखना विषय कहलाता है। पाँच इन्द्रियों के निग्रह रूप संयम से विषय जीते जाते हैं। (११) अशुभ योग-मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति को अशुभ योग कहते हैं । गुमित्रय (मन, वचन और काया की शुभ प्रवृत्ति) से अशुभ योगों पर विजय प्राप्त होती है। (१२) प्राद--धर्म कार्यों में ढील करना प्रमाद कहलाता है। धर्म कार्यों में समय मात्र की मी ढील न करने से प्रमाद पर विजय प्राप्त होती है । भगवान ने गौतम स्वामी को लक्ष्य करके उचराध्ययन सूत्र में फरमाया है-- 'समयगोयम मोपमायए' भर्यान्- हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। शाबों में जगह जगह भगवान ने फरमाया है.. 'ग्रहासुई देवाणुप्पिया! मा पडियन्, करेह । हे देवानुप्रिय! धर्म कार्य में किञ्चिन्मात्र विलम्ब मत करो। (१३) अविरति-हिसा, झूठ आदि का त्याग न करना अविगति भाव कहलाता है । हिंसा यादि के त्याग रूप विरति से इस पर विजय प्राप्त होती है। उपरोक्त तेरह पातों का विचार करने से चित्त में शान्ति रहती है और चित्त ग्वस्थ रहता है। (भादषिधि प्रश्रय)
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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