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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ३६३ (४) अकस्माद्दण्ड प्रत्ययिक-विना जाने होने वाला पाप । जैसे-मृग आदिका शिकार करके भाजीविका चलाने वाला व्यक्ति मृग के भ्रम से किसी दूसरे प्राणी को मार डाले, अथवा खेत में घास काटता हुआ कोई व्यक्ति अनजान में अनाज के पौधे को काट डाले। (५) दृष्टिविपर्यामदण्ड प्रत्ययिक-नजर चूक जाने के कारण होने वाला पाप । जैसे-गाँव में चोर आने पर भ्रमवश साधारण पुरुष को चोर समझ कर मार डालना। (६) मृपावाद प्रत्यायिक- झूठ बोलने से लगने वाला पाप । जैसे-कोई पुरुष अपने लिए या अपने किसी इष्ट व्यक्ति के लिए झूठ बोले, चोलावे, चोलने वाले का अनुमोदन करे । (७) अदचादान प्रत्ययिक-चोरी करने से होने वाला पाप । जैसे-कोई मनुष्य अपने लिए या अपने इष्ट व्यक्ति के लिए चोरी करे, करावे या करते हुए को भला जाने। (0) अध्यात्म प्रत्ययिक-क्रोधादि कपायों के कारण होने वाला पाप । जैसे-कोई पुरुष क्रोध, मान, माया या लोम के वशीभूत होकर किसी द्वारा कष्ट न दिए जाने पर भी दीन, हीन, खिन्न और अस्वस्थ होकर शोक तथा दुःखसागर में डूबा रहता है। (8) मान प्रत्ययिक-मान या अहङ्कार के कारण होने वाला पाप । जैसे-कोई पुरुष अपनी जाति, कुल, वल, रूप, तप, ज्ञान, लाम, ऐश्वर्य या प्रज्ञा आदि से मदमत्त होकर दूसरों की अब. हेलना या तिरस्कार करता है। अपनी प्रशंसा करता है। ऐसा मनुष्य क्रूर, घमण्डी, चपल और अभिमानी होता है। मरने के बाद एक योनि से दूसरी योनि तथा नरकों में भटकता है। (१०) मित्रदोप प्रत्ययिक-अपने कुटुम्बियों के प्रति विना कारण क्रूरता दिखाने से लगने वाला पाप | जैसे- कोई मनुष्य अपने माता, पिता, भाई, घहिन, स्त्री, पुत्र, पुत्री और पुत्रवधू आदि
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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