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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ३७३ में फंसा हुआ संसार रूप अथाह कूप में गहरा उतर कर इधर उधर भटकता फिरता है। वोधिरत्न की प्राप्ति इसे कैसे हो सकती है ? इतना ऊपर उठ कर भी भात्मा चोधि से वश्चित रह जाता है। इस से इसकी दुर्लभता जानी जा सकती है। बोधि को प्राप्त करने का मनुष्य जन्म ही एक उपयुक्त अवसर है और यही कारण है कि देवता भी इसे पाने के लिये लालायित रहते हैं। इस लिए इस जन्म में आर्य देश, उत्तम कुल, पूर्ण पाँचों इन्द्रियों आदि दस वोल पाकर योधि को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये । अनेक जन्म के बाद महान् पुण्य के योग से ऐसा सुअवसर मिलता है और दुवारा इसको जन्दी मिलना सहज नहीं है। धर्म प्राप्ति में और भी अनेक विघ्न हैं इस लिए जब तक शरीर नीरोग है, बुढ़ापे से शरीर जीर्ण नहीं होता, इन्द्रियों अपने अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हैं तव तक इसके लिये प्रयत्न कर मनुष्य जन्म को सार्थक करना चाहिये । मनुष्य जन्म और बोधि की दुर्लभता बताने का यही आशय है कि यह अवसर अमूल्य है। धर्म प्राप्ति योग्य अवस्था पाकर प्रमाद करना ठीक वैसा ही है जैसे बड़ी भारी वरात लेकर विवाह के लिये गये हुए पुरुष का ठीक विवाह का मुहूर्त पाने पर नींद में सो जाना। श्रीचिदानन्दजी महाराज कहते हैं 'बार अनन्ती चून्यो चेतन!, इण अवसरमत चूक' इस प्रकार की भावना करने से जीव रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग में अप्रमादी वन कर धीरेधीरे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता जाता है। (१२) धर्म भावना• वत्थुसहावो धम्मो, खतिपमुहो दसविहो धम्मो। जीवाणं रक्खणं धम्मो, रयणतयं च धम्मो॥ अर्थात्-वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि दस भेद रूप धर्म है । जीवों की रक्षा करना धर्म है और सम्यरज्ञान, सम्यग्दर्शन,
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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