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________________ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला और आहारक ।३ अंगोपाङ्ग। ६ संस्थान । ६ संहनन. ५ जाति । ४ गति । २ विहायोगति । ४ आनुपूर्वी । तीर्थङ्करनाम, श्वासनाम, उद्योतनाम, आतपनाम, पराघातनाम । १० सदशक । १० स्थावर दशक । २ गोत्र । २ वेदनीय । ७ नोकषाय-हास्य, रति, परति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद । ४ आयु । कुल मिला कर७३ प्रकृतियाँ अध्रु वयन्धिनी हैं । पराघात और उच्लास नामकर्म का बन्ध पर्याप्त नामकर्म के साथ ही होता है। अपर्याप्त के साथ नहीं होता, इसी लिए ये प्रकृतियाँ अध्रु वन्धिनी कहलाती हैं । श्रातप नामकर्म एकेन्द्रिय जाति के साथ ही बंधता है। उद्योत नाम तिर्यश्च गति के साथ ही वन्धता है। श्राहारक शरीर और आहारक अंगोपाङ्ग नामकर्म का बन्ध संयमपूर्वक ही होता है और तीर्थङ्कर नामकर्म सम्यक्त्व के होने पर ही वन्धता है। दूसरी छयासठ प्रकृतियों का बन्ध कारण होने पर भी अवश्य रूप से नहीं होता । इसीलिए ये सब अध्रु ववन्धिनी कहलाती हैं। सभी प्रकृतियों के चार मांगे होते हैं-अनादि अनन्त, अनादि . सान्त, सादि अनन्त, सादि सान्त । जो प्रकृतियाँ सन्तान परम्परा रूप में अनादि काल से चली आ रही हैं और अनन्त काल तक सदा विद्यमान रहेंगी उन्हें अनादि अनन्त कहा जाता है । इस भंग में ध्रु बोदया प्रकृतियाँ ली जाती हैं। वे २७ हैं-निर्माण,स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्मण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, ५ ज्ञानावरणीय, ५ अन्तराय और चार दर्शनावरणीय-चतु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन, केवल दर्शन और मिथ्यात्व मोहनीय, ये प्रकृतियाँ अभव्य जीवों के सदा उदय में रहती हैं, इसलिए अनादि अनन्त कही जाती हैं। मोक्षगामी भव्य जीवों की अपेक्षा ये अनादि सान्त हैं। इनमें से ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की ४ और अन्तराय की ५, ये १४ प्रकृतियाँ अनादि काल, से लगी होने पर भी चारहवें क्षीणमोहनीय गुणस्थान के
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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