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________________ ३३३ । श्री सेठिया जैन प्रन्माला कुमार से सहस्रार कल्प तक के देव पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्यों में ही उत्पन होते हैं। आणत से लेकर ऊपर के देव मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं। मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च ही देवलोक में उत्पन्न होते हैं, नारकी, देवता या एकेन्द्रिय आदि नहीं हो सकते। तिर्यश्च भी पाठवें देवलोक सहस्रार कल्प तक जा सकते हैं अगे नहीं। (पनवणा ६ व्युत्क्रान्ति पद) (प्रवचन सरोद्धार द्वार १९९-२००) भावान्तर मेद सौधर्म कल्प से लेकर अच्युत देवलोक तक देवों के दरजे अथवा पद की अपेक्षा दस भेद हैं-(१) इन्द्र (२) सामानिक (३)पायनिश (४) पारिपन (५) आत्मरक्षक (६) लोकपाल (७) अनीक (८) प्रकीर्णक (8) भाभियोग्य (१०) किल्विषिक । प्रवीचार-दूसरे ईशान देवलोक तक के देव मनुष्यों की तरह प्रवीचार (मैथुन सेचन) करते हैं। तीसरे देवलोक सनत्कुमार से लेकर आगे के वैमानिक देव मनुष्यों की तरह सर्वांग स्पर्श द्वारा काम सुख नहीं भोगते, वे मिन्न भिन्न प्रकार से विषय सुख का अनुभव करते हैं। तीसरे और चौथे देवलोक में देवियों के स्पर्श मात्र से काम तृष्णा की शान्ति कर लेते हैं और सुख का अनुभव करते हैं। पाँचवे और छठे देवलोक के देव केवल देवियों के सुसजित रूप को देख कर तृप्त हो जाते हैं। सातवें और आठवें देवलोक में देवों की कामवासना देवियों के मधुर शब्द सुनने मात्र से शान्त हो जाती है और उन्हें विषय सुख के अनुभव का आनन्द मिलता है। नवें, दसवें, ग्यारहवें और बारह देवलोक में देवियों के चिन्तन मात्र से विषय सुख की वृप्ति हो जाती है। इसके लिए इन्हें देवियों फोछूने,देखने या उनका स्वर सुनने की आवश्यकता नहीं रहती। देवियों की उत्पत्ति दूसरे देवलोक तक ही होती है । जब ऊपर
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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