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________________ ३१४ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला वायु अपनी इच्छानुसार पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण किसी भी दिशा में बहती है, उसी प्रकार साधु अप्रतिबद्ध विहारी होवे अर्थात् साधु किसी गृहस्थादि के प्रतिबन्ध में बंधा हुआ न रहे किन्तु अपनी इच्छानुसार ग्राम, नगर आदि में विहार करे और धर्मोपदेश द्वारा जनता को कल्याण का मार्ग बतलावे । ( अनुयोग द्वार, सूत्र १५० गाथा १२७ -- १३२ ) ८०६ - सापेक्ष यतिधर्म के बारह विशेषण स्थविर कल्प धर्म सापेचयविधर्म कहलाता है। इस धर्म को अङ्गीकार करने वाले व्यक्ति का गृहस्थों के साथ सम्पर्क रहता है, इस लिए यह सामेच यतिधर्म कहलाता है । इसे अङ्गीकार करने वाले व्यक्ति में निम्न लिखित बारह बातों के होने से वह प्रशस्त माना जाता है। वे बारह बातें ये हैं (१) कल्याणाशय - सापेक्ष यतिधर्म को अङ्गीकार करने वाले व्यक्ति का आशय कल्याणकारी होना चाहिए । उसका आशय केवल मुक्ति रूप नगर को प्राप्त करने का होना चाहिए । (२) तरल महोदधि - सापेक्ष यतिधर्म के धारक व्यक्ति को अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होना चाहिए। शास्त्रों का ज्ञाता मुनि ही धर्मोपदेश द्वारा लोगों का उपकार कर सकता है । बहुश्रुत ज्ञानी साधु सर्वत्र पूज्य होता है । उत्तराध्ययन सूत्र के ग्यारहवें अध्ययन में बहुश्र ुत ज्ञानी को सोलह श्रेष्ठ उपमाएं दी गई हैं । (३) उपशमादि लब्धिमान् - साधु के क्रोध, मान, माया, लोभ यदि कषाय उपशान्त होने चाहिएं। क्रोधादि के वशीभूत हो जाने से साधु के श्रात्मिक गुणों का हास होता है। (४) परहितोधत - साधु छः काया का रक्षक कहा जाता है । उसे मन, वचन और काया से किसी भी प्राणी की हिंसा स्वयं न करनी चाहिए, न करानी चाहिए और हिंसा करने वाले का अनु
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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