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________________ २६४ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला हैं-(१) कारण के उपस्थित होने पर विधि पूर्वक की गई । (२) कारण के उपस्थित होने पर प्रविधि पूर्वक की गई । (३) बिना कारण के विधि पूर्वक की गई । (४) विना कारण प्रविधि से की गई । इन चार भागों में पहला शुद्ध है। शेष अंग दोष वाले हैं। इन तीन अशुद्ध भंगों का सेवन करने वाला साधु प्रायश्चित्त लेकर तीसरी बार तक शुद्ध हो सकता है, इससे आगे नहीं। बन पात्रादि उपधि को काम में लाना परिहरणा है । इसमें भी पहले सरीखे चार भंग हैं। उनमें पहला शुद्ध है, शेष के लिए प्रायश्चित्त भादि की व्यवस्था पहले सरीखी है। उद्गम शुद्ध, उत्पादनाशुद्ध आदिसंभोगों को मिलाने से संयोग होता है। इसमें २६ मांगे हैं। दो के संयोग से दस भांगे होते हैं। तीन के संयोग से दस । चार के संय ग से पाँच । पाँचों के संयोग से एक । इन छब्बीस भंगों में केवल साम्भोगिक वाले शुद्ध हैं। असांभोगिक वाले अशुद्ध हैं । इनका विस्तार निशीथ सूत्र में है। (२) तसंभोग-पास में आए हुए सांभोगिक अथवा अन्य सांभोगिक साधु को विधिपूर्वक शास्त्र पढ़ाना अथवा दूसरे के पास जाकर पढ़ना श्रुतम्भोग है । विना विधि अथवा पामत्थे आदि को वाचनादि देने वाला तीन बार तक प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध हो सकता है। प्रायश्चित्त न लेने पर अथवा चौथी बार दोष लगने पर अशुद्ध मान लिया जाता है। (३) भक्तपान-शुद्ध आहार पानी का सेवन करना अथवा देना भक्तपान संभोग है। .(४) अनलिप्रग्रह-सम्भोगी अथवा अन्यसम्भोगी साधुओं के साथ वन्दना, आलोचना आदि करना अञ्चलिप्रग्रह है। पासत्थे आदि के साथ वन्दनादि व्यवहार करने वाला पहले की तरह तीन चार तक प्रायश्चिच लेने पर शुद्ध होता है। चौथी पार या विना
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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