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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग - २६१ - के बाहर जाकर दोनों पैरों को कुछ संकुचित कर हाथों को घुटनों तक लम्बा करके कायोत्सर्ग किया जाता है। पूर्वोक्त पडिमाओं के शेप सभी नियमों का पालन किया जाता है। (१२) धाहरवीं पडिमा का नाम एक रात्रिकी है। इसका समय केवल एक रात है। इसका अाराधन वेले को चढ़ा कर चौविहार तेला करके किया जाता है। इसके बाराधक को ग्राम आदि के बाहर जाकर शरीर को थोड़ा सा आगे की ओर झुका कर एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए अनिमेष नेत्रों से निचलता पूर्वक सब इन्द्रियों को गुप्त रख कर दोनों पैरों को संकुचित कर हाथों को घुटनों तक लम्बा करके कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग करते समय देव, मनुष्य या तिर्यश्च सम्बन्धी कोई उपसर्व उत्पन्न हो तो दृढ़ होकर समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। यदि उसको मल मूत्र की शंका उत्पन्न हो जाय तो उसे रोकना नहीं चाहिए, किन्तु पहले से देखे हुए स्थान में उनकी निवृत्ति कर वापिस अपने स्थान पर पाकर विधिपूर्वक कायोत्सर्ग में लग जाना चाहिए। इस पडिमा का सम्यक् पालन न करने से तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षमा, अमोच तथा आगामी काल में दुःख के लिए होते हैं-(१)देवादि द्वारा किये गये अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्गादि को समभाव पूर्वक सहन न करने से उन्माद की प्राप्ति हो जाती है। (२) लम्बे समय तक रहने वाले रोगादिक की प्राप्ति हो जाती है। (३)अथवा वह केवलिप्रतिपादित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है अर्थात अपनी प्रतिज्ञा से विचलित हो जाने से वह श्रुत चारित्र रूप धर्म से भी पतित हो जाता है। इस पडिमा का सम्यग्रूप से पालन करने से तीन. अमूल्य पदार्थों की प्राप्ति होती है अर्थात् अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान और . केवखवान इन तीनों में से एक गुण को अवश्य प्राप्त कर लेता है,
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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