SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग १४५ स्थान पर राजगृह और राजगृह के स्थान पर वाणारसी (वनारस) का भ्रम होना, सम्यग्दृष्टि अनगार की विकुणा, सव स्थानों में याथातथ्यमाव से देखना, चमरेन्द्र के आत्मरक्षक देवों का वर्णन। (७)उ०- शक्रन्द्र के लोकपालों का विचार और विमानों का विचार । (2)उ०-अमुरकुमार आदि दस भवनपतियों के नाम, उनके अधिपति देवों के नाम, पिशाच, ज्योतिषी और वाणव्यन्तर दवा के अधिपतियों के नाम और उन पर विचार । (8)उ०-पांच इन्द्रियों के कितने विषय है ? उत्तर के लिए श्री जीवाभिगम सूत्र की भलामण । (१०)उ००-चपरेन्द्र की सभा से लेकर अच्युतेन्द्र की सभा - तक का विचार। चौथा शतक (१८)उ०-दस उद्देशों के नाम की गाथा। पहले से चोथे उद्देशे तक ईशानेन्द्र के लोकपाल और विमानों का प्रश्नोत्तर। पॉचत्रे से आठवें उद्देशे तक लोकपालों की राजधानियों का वर्णन । (8)उ०-- नरक में नैरयिक उत्पन्न होते हैं या अनैरयिक, इत्यादि विचार। (१०) उ०--कृष्ण लेश्या, नील लेश्या श्रादि को प्राप्त कर जीव क्या तद्वर्णरूप से परिणत होता है ? उचर के लिए पन्नवणा के लेश्यापद की भलामण। पाँचवॉ शतक (१)उ०-दस उद्देशों के नाम की गाथा. सर्य की गति विषयक प्रश्न, सूर्य की उत्तरार्द्ध एवं दक्षिणार्द्ध में गति आदि का विचार । (२)उ०-पुरोवात, पश्चाद्वात, मंदवात, महावात श्रादि वायु सम्बन्धी विचार, वायुकुमारों द्वारा वायु की उदीरणा, वायु मर
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy