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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह उनकी बुद्धि वैसी ही बन जाती है, जिससे बुरे कर्म के अशुभ फल की इच्छा न रहने पर भी वे ऐसा कार्य कर बैठते हैं कि जिससे उन्हें स्वकृत कर्मानुसार फल मिल जाता है । नहीं चाहने से कर्म का फल न मिले यह संभव नहीं है । आवश्यक सामग्री के एकत्रित होने पर कार्य स्वतः हो जाता है। कारणसामग्री के पूरी होने पर व्यक्ति विशेष की इच्छा से कार्य की उत्पत्ति न हो यह बात नहीं है । जीभ पर मिर्च रखने के बाद उसकी तिक्तता (तीखेपन) का अनुभव स्वतः हो जाता है। व्यक्ति के न चाहने से मिर्च का स्वाद न श्रावे, यह नहीं होता, न उसके तीखेपन का अनुभव कराने के लिये अन्य चेतन आत्मा की ही आवश्यकता पड़ती है। यही बात कर्म फल भोग के विषय में भी है। ___ काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ इस पाँच समवायों के मिलने से कर्म फल का भोग होता है। ( ठा. ठाणा १० टीका ) आत्मा और कर्म दोनों अगुरुलघु माने गये है। इसलिये उनका परस्पर सम्बन्ध हो सकता है। (भगवती शतक १ उद्देशार ) इस प्रकार चेतन का सम्बन्ध पाकर जड़ कर्म स्वयं फल दे देता है और आत्मा भी उसका फल भोग लेता है। ईश्वर श्रादि किसी तीसरे व्यक्ति की इसमें आवश्यकता नहीं है। कर्म करने के समय ही परिणामानुसार जीव में ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं कि जिनसे प्रेरित होकर कर्त्ताजीव कर्म के फल आप ही भोग लेता है और कर्म भी चेतन से सम्बद्ध होकर अपने फल को स्वतः प्रगट कर देते हैं। कर्म की शुभाशुभता- लोक में सर्वत्र कर्मवर्गणा के पुद्गल भरे हुए हैं। उनमें शुभाशुभ का भेद नहीं है। फिर कर्म पुद्गलों में शुभाशुभ का भेद कैसे हो जाता है ? इस का उत्तर यह है कि
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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