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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला तथा अंगार छोड़ रहे हैं, अन्दर ही अन्दर जोर से सुलग रहे हैं, ऐसे अग्नि और भट्ठों की तरह मायावी मनुष्य हमेशा पश्चात्ताप रूपी अग्नि से जलता रहता है । वह जिसे देखता है उसी से शङ्का करता है कि इसने मेरे दोष को जान लिया होगा। निच संकियभीोगम्मोसव्वस्स खलियचारित्तो। साहुजणस्स अवमो मोऽविषुण दुग्गइं जाइ । अर्थात्- मायावी पुरुष जो अपने चारित्र से गिर गया है हमेशा शंकित तथा भयभीत रहता है । हर एक उसे डरा देता है। भले आदमी उसकी निन्दा तथा अपमान करते हैं। वह मरकर दुर्गति में जाता है। इससे यह बताया गया कि जो अपने पापों की आलोचना नहीं करता उसका यह लोक बिगड़ जाता है। ___ मायावी पुरुष का उपपात अर्थात् परलोक भी बिगड़ जाता है । पहिले कुछ करनी की हो तो भी वह मर कर व्यन्तर आदि छोटी जाति के देवों में उत्पन्न होता है। नौकर, चाकर, दास दासी आदि बड़ी ऋद्धिवाले, शरीर और आभरण आदि की अधिक दीप्ति वाले, वैक्रियादि की अधिक लब्धि वाले, अधिक शक्ति सम्पन्न, अधिक सुखवाले महेश या सौधर्म आदि कल्पों में तथा एक सागर या उससे अधिक आयु वाले देवों में उत्पन्न नहीं होता । उन देवों का दास दासी आदि की तरह बाह्य या पुत्र स्त्री आदि की तरह आभ्यन्तर परिवार भी आदर नहीं करता, उसको अपना मालिक नहीं समझता । उसको कोई अच्छा श्रासन नहीं मिलता । जब वह कुछ बोलने के लिए खड़ा होता है. तो चार पाँच देव उसका अपमान करते हुए कहते हैं बस रहने दो,अधिक मत बोलो। जब वह मायावी जीव, जिसने आलोचना नहीं की है, देव गति से चवता है तो मनुष्यलोक में नीच कुलों में उत्पन्न होता
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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