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________________ 412 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला आदि अनेक अर्थ हैं अथवा समान अर्थ वाले शब्दों में समभिरूट और एवम्भूत नय के अनुसार भेद डाल देना पकार्थिक विशेष है / जैसे- शक्र और पुरन्दर दोनों शब्दों का एक अर्थ होने पर भी किसी कार्य में शक्त अर्थात् समर्थ होते समय ही शक और पुरों का दारण (नाश) करते समय ही पुरन्दर कहना। (5) कारण- कार्य कारण रूप वस्तु समूह में कारण विशेष है / इसी तरह कार्य भी विशेष हो सकता है, अथवा कारणों के भेद कारणविशेष हैं। जैसे घट का परिणामी कारण मिट्टी हैं, अपेक्षाकारण दिशा,देश, काल, आकाश, पुरुष,चक्र आदि हैं। अथवा मिट्टी वगैरह उपादान कारण हैं, कुलाल (कुम्हार) आदि निमित्त कारण हैं और चक्र,चीवर(डोरा)आदि सहकारी कारण हैं। (6) प्रत्युत्पन्न दोष- प्रत्युत्पन्न का अर्थ है वर्तमानकालिक या जो पहले कभी न हुआ हो / अतीत या भविष्यत्काल को छोड़ कर वर्तमानकाल में लगने वाला दोष प्रत्युत्पन्नदोष है / अथवा प्रत्युत्पन्न स्वीकार की हुई वस्तु में दिए जाने वाले अकृताभ्यागम, कृतपणाश आदि दोष प्रत्युत्पन्न दोष हैं। (7) नित्यदोष- जिस दोष के आदि और अन्त न हों / जैसे अभव्य जीवों के मिथ्यात्व आदि दोष। अथवा वस्तु को एकान्त नित्य मानने पर जो दोष लगते हैं, उन्हें नित्य दोष कहते हैं / (8) अधिक दोष-दूसरे को ज्ञान कराने के लिए प्रतिज्ञा, हेतु उदाहरण आदि जितनी बातों की आवश्यकता है उससे अधिक कहना अधिक दोष है। (8) आत्मकृत-- जो दोष स्वयं किया हो उसे आत्मकृत दोष कहते हैं। . (10) उपनीत-- जो दोष दूसरे द्वारा लगाया गया हो उसे उपनीत दोष कहते हैं। .. (ठाणांग, मूत्र 743)
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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