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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ७०४ - प्रत्याख्यान ( पच्चक्खाण) दस अमुक समय के लिए पहले से ही किसी वस्तु के त्याग कर देने को प्रत्याख्यान कहते हैं। इसके दस भेद हैं- ३७५ गयमतितं कोडीसहियं नियंटितं चेव । सांगारमणागारं परिमाणकडे निरवसेसं ॥ संकेय चैव श्रद्धाए पश्चक्खाणं दसविह तु ॥ ( १ ) अनागत-- किसी आने वाले पर्व पर निश्चित किए हुए पच्चक्खाण को उस समय बाधा पड़ती देख पहिले ही कर लेना । जैसे पर्युषण में आचार्य या ग्लान तपस्वी की सेवा सुश्रूषा करने के कारण होने वाली अन्तराय को देख कर पहिले ही उपवास वगैरह कर लेना । (२) अतिक्रान्त- पर्युषणादि के समय कोई कारण उपस्थित होने पर बाद में तपस्या वगैरह करना अर्थात् गुरुतपस्वी और ग्लान की वैयावृत्य आदि कारणों से जो व्यक्ति पर्युषण वगैरह पर्वो पर तपस्या नहीं कर सकता, वह यदि बाद में उसी तप कोकरे तो उसे अतिक्रान्त कहते हैं । (३) कोटी सहित -- जहाँ एक प्रत्याख्यान की समाप्ति तथा दूसरे का प्रारम्भ एक ही दिन में हो जाय उसे कोटी सहित कहते हैं। ( ४ ) नियन्त्रित -- जिस दिन जिस पच्चक्खाण को करने का निश्चय किया है उस दिन उसे नियमपूर्वक करना, बीमारी वगैरह की बाधा आने पर भी उसे नहीं छोड़ना नियन्त्रित प्रत्याख्यान है । प्रत्येक मास में जिस दिन जितने काल के लिए जो तप अंगीकार किया है उसे अवश्य करना, बीमारी वगैरह बाधाएं उपस्थित होने पर भी प्राण रहते उसे न छोड़ना नियन्त्रित तप है । यह प्रत्याख्यान चौदह पूर्वधर, जिनकल्पी, वज्रऋषभ नाराच :
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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