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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (२२) मुहवासविह अपने मुख को सुवासित करने के लिए पान और चूर्ण आदि पदार्थों का परिमाण करना। आनन्द श्रावक पञ्चसौगन्धिक अर्थात् लौंग, कपूर, कक्कोल (शीतल चीनी), जायफल और इलायची डाले हुए पान का परिमाण किया था। इसके बाद आनन्द श्रावक ने आठवें अनर्थ दण्ड व्रत को अंगीकार करते समय नीचे लिखे चार कारणों से होने वाले अर्थदण्ड का त्याग किया- (क) अपध्यानाचरित - श्रार्तध्यान रौद्रध्यानके द्वारा अर्थात् दूसरे को नुक्सान पहुँचाने की भावना या शोक चिन्ता आदि के कारण व्यर्थ पाप कर्मों को बाँधना । (ख) प्रमादाचरित - प्रमाद अर्थात् आलस्य या असावधानी से अथवा मद्य, विषय, कषायादि प्रमादों द्वारा अनर्थदण्ड का सेवन करना । (ग) हिंस्रप्रदान- हिंसा करने वाले शस्त्र आदि दूसरे को देना । (घ) पापकर्मोपदेश- जिस में पाप लगता हो ऐसे कार्य का उपदेश देना । ३०० इसके बाद भगवान् ने आनन्द श्रावक से कहा कि हे आनन्द ! जीवाजीवादि नौ तत्त्वों के ज्ञाता श्रावक को समकित के पाँच अतिचारों को, जो कि पाताल कलश के समान हैं, जानना चाहिए किन्तु इनका सेवन नहीं करना चाहिए | वे अतिचार ये हैं- संका, कंखा, वितिगिच्छा, परपासंडप्पसंसा, परपासंडसंथव । इन पाँच अतिचारों की विस्तृत व्याख्या इसके प्रथम भाग बोल नं० २८५ में दे दी गई है। इसके बाद बारह व्रतों के साठ अतिचार बतलाए । उपा सक दशाङ्ग सूत्र के अनुसार उन अतिचारों का मूल पाठ यहाँ दिया जाता है (१) तयाणन्तरं च गं धूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासरणं पञ्च इयारा पेयाला जाणियव्त्रा न समायरियव्वा, 4
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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