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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २९१ 3 (२) देवता की भी सहायता नहीं चाहता, अर्थात् किसी कार्य में दूसरे का भाशा पर निर्भर नहीं रहता है। (३) श्रावक धर्म कार्य एवं निर्ग्रन्थ प्रवचनों में इतना दृढ़ तथा चुस्त होता है कि देव, असुर,नागकुमार, ज्योतिष्क, यक्ष, राक्षस, . किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, महोरग, गन्धर्व इत्यादि कोई भी ... उसको निग्रेन्थ प्रवचनों से विचलित करने में समय नहीं हो सकता। (४)श्रावक निर्ग्रन्ध प्रवचनों में शंका कांक्षाविचिकित्सा आदि समकित के दोषों से रहित होता है। (५) श्रावक शाखों के अर्थ को बड़ी कुशलता पूर्वक ग्रहण करने वाला होता है । शाखों के अर्थों में सन्देह वाले स्थानों का भली प्रकार निर्णय करके और शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को जान कर श्रावक निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर अटूट प्रेम वाला होता है। उसका हाड़ और हाड़ की मिंजा (मज्जा), जीव और जीव के प्रदेश धर्म के प्रेम एवं अनुराग से रंगे हुए होते हैं। (६) ये निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ (सार) है, ये ही परमार्थ हैं, बाकी संसार के सारे कार्य अनर्थ रूप हैं। प्रात्मा के लिए निर्ग्रन्थ प्रवचन ही हितकारी एवं कल्याणकारी हैं। शेष संसार के सारे कार्य प्रात्मा के लिए अहितकर एवं अकल्याणकारी हैं। ऐसा जान कर श्रावक निग्रन्थ प्रवचनों पर दृढ भक्ति एवं श्रद्धा वाला होता है। (७) श्रावक के घर के दरवाजे की अर्गला हमेशा ऊँची ही रहती है। इसका अभिप्राय यह है कि श्रावक की इतनी उदा. रता होती है कि उसके घर का दरवाजा हमेशा साधु, साध्वी, श्रमण, माहण आदि सबको दान देने के लिए खुला रहता है। श्रावक साधु साध्वीकोदान देने की भावना सदा भाता रहता है। (3) श्रावक ऐसा विश्वास पात्र होता है कि वह किसी के .. . .
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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