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________________ २७० मी सेठिया जैन प्रन्यमाना (६) लवण समुद्र में बड़े बड़े पाताल कलश हैं और उनका पानी ऊपर उछलता रहता है। जिनमें पड़ा हुआ जीव बाहर निकल नहीं सकता। इसी प्रकार संसार रूप समुद्र में क्रोध मान माया लोभ चार कषाय रूप महान् पाताल कलश हैं। उनमें सहस्र भव रूपी पानी भरा हुआ है। अपरिमित इच्छा, आशा, तृष्णा एवं कलुषता रूपी महान् वायुवेग से क्षुब्ध हुआ.. वह पानी उछालता रहता है। इस कषाय की चौकड़ी रूप कलशों में पड़े हुए जीव के लिए संसार समुद्र तिरना अति दुष्कर है। . (७) लवण समुद्र में अनेक दुष्ट हिंसक प्राणी महामगर तथा . अनेक मच्छ कच्छ रहते हैं। संसाररूपसमद्र में अज्ञान और पाखण्ड मत रूप अनेक मच्छ कच्छ हैं। संसार के प्राणी शोक रूपी वडवानल से सदा जलते रहते हैं। पाँच इन्द्रियों के अनिग्रह (वश में न रखना) महामगर हैं। (८) लवण समुद्र के जल में बहुत भंवर पड़ते हैं। संसार रूप समुद्र में प्रचुर आशा तृष्णा रूप श्वेत वर्ण के फेन से युक्त महामोह से आत काया की चपलता और मन की व्याकुलता रूप पानी के अन्दर विषय भोग रूपी भंवर पड़ते हैं। इनमें फंसे हुए प्राणी के लिए संसार समुद्रतिरना अत्यन्त दुष्कर हो जाता है। (8) लवण समुद्र में शंख सीप आदि बहुत हैं। इसी प्रकार संसार रूप समुद्र में कुशुरु, कुदेव और कुधर्म (कुशास्त्र) रूप शंख सीप बहुत हैं। (१०) लवण समुद्र में जल का ओघ और प्रवाह भारी है । संसार रूप समुद्र में आर्त, भय, विषाद,शोक तथा क्लेश और कदाग्रह रूप महान् ओघ प्रवाह है और देवता, मनुष्य, तिर्यश्च और नरक गति में गमन रूप वक्र गति वाली बेले हैं। उपरोक्त कारणों से लवण समुद्र को तिरना अत्यन्त दुष्कर है,
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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