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________________ २१२ भी सेठिया जैन प्रन्यमाना (१०) वत्सानुबन्धिका- पुत्रस्नेह के कारण ली गई दीक्षा। जैसे- वैरस्वामी की माता। वरखामा की माता। (ठाणांग, सूत्र ७१२) ६६६- प्रतिसेवना दस .. पाप या दोषों के सेवन से होने वाली संयम की विराधना " को प्रतिसेवना कहते हैं। इसके दस भेद हैं- .. (१)दर्पप्रतिसेवना-अहंकार से होने वाली संयम की विराधना। (२) प्रमादप्रतिसेवना- मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा इन पाँच प्रमादों के सेवन से होने वाली संयम की विराधना। (३) अनाभोगप्रतिसेवना- अज्ञान से होने वाली संयम की : विराधना। (४) आतुरप्रतिसेवना- भूख, प्यास आदि किसी पीड़ा से व्याकुल होने पर की गई संयम की विराधना । (५) आपत्प्रतिसेवना-- किसी आपत्ति के आने पर संयम की ... विराधना करना। आपत्ति चार तरह की होती है- द्रव्यापत् . (पासुकादि निदोष आहारादि न मिलना) क्षेत्रापत्-(अटवी आदि भयानक जङ्गल में रहना पड़े)कालापत् (दुर्भिक्ष आदि पड़ जायँ) ... भावापत् (बीमार पड़ जाना, शरीर का अखस्थ हो जाना)। (६) संकीर्णपतिसेवना-- स्वपक्ष और परपन से होने वाली जगह की तंगी के कारण संयम का उल्लंघन करना । अथवा शंकितप्रतिसेवना- ग्रहणयोग्य आहार में भी किसी दोष की शंका हो जाने पर उस को ले लेना। ... : (७) सहसाकारप्रतिसेवना- अकस्मात् अर्थात् विना पहले ' समझे बुझे और पडिलेहना किए किसी काम को करना। .. (८) भयप्रतिसेवना-भय से संयम की विराधना करना। . (8) प्रदेषप्रतिसेवना- किसी के ऊपर द्वेष या ईर्ष्या से संयम , की विराधना करना। यहाँ प्रद्वेष से चारों कषाय लिए जाते हैं।
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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