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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २४१ भी उन्हें नहीं धोया जाता, क्योंकि उसी द्रव्य को परोसने की फिर सम्भावना रहती है। यदि वह पदार्थ बाकी न बचे तो बर्तन वगैरह धो दिए जाते हैं इससे साधु को पश्चारकर्म दोष लगने की सम्भावना रहती है। इसलिए ऐसे भागे कल्पनीय कहे गए हैं जिन में दी जाने वाली वस्तु सावशेष (बची हुई) कही है। बाकी अकल्पनीय हैं। लिप्त दोष का मुख्य आधार बाद में होने वाला पश्चात्कर्म ही है। सारांश यह है कि लेप वाली वस्तु तभी कल्पनीय है जब वह लेने के बाद कुछ बाकी बची रहे । पूरी लेने पर ही पश्चात्कर्म दोष की सम्भावना है। (प्रवचनसारोद्धार गाथा ५६८) (१०) छड्डिय (छर्दित)- जिसके छींटे नीचे पड़ रहे हों, ऐसा आहार लेना छर्दित दोष है । ऐसे आहार में नीचे चलते हुए कीड़ी आदि जीवों की हिंसा का डर है इसीलिए साधु को अकल्पनीय है। नोट- एषणा के दस दोष साधु और गृहस्थ दोनों के निमित्त से लगते हैं। (प्रवचनसारोद्धार द्वार ६७ ) ( पिंडनियुक्ति गा० ५२०) (धर्मसंग्रह ३ रा गाथा २२)(पंचाशक १३ वां गाथा २६) ६६४-- समाचारी दस • साधु के आचरण को अथवा भले आचरण को समाचारी कहते हैं। इसके दस भेद हैं(१) इच्छाकार- 'अगर आपकी इच्छा हो तो मैं अपना अमुक काये करूं अथवा आप चाहें तो में आपका यह कार्य करूं? इस प्रकार पूछने को इच्छाकार कहते हैं। एक साधु दूसरे से किसी कार्य के लिए प्रार्थना करे अथवा दूसरा साधु स्वयं उस कार्य को करे तो उस में इच्छाकार कहना आवश्यक है। इस से किसी भी कार्य में किसी की जबर्दस्ती नहीं रहती।
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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