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________________ की जैनसिद्धान्त बोल संग्रह (३६) माभृतिकां स्थापयन्ती- साधु को देने के लिए पहिले से ही माहारादि को बड़े बर्तन से निकाल कर छोटे बर्तन में अलग रखती हुई। (३७) समत्यपाया-जिस देने वाली में किसी तरह के दोष की सम्भावना हो। (३८)अन्यार्थ स्थापितदात्री-विवक्षित साधु के अतिरिक्त किसी दूसरे साधु के लिए रक्खे हुए अशनादि को देने वाली। (३६) श्राभोगेन ददती- 'साधुओं को इस प्रकार का आहार नहीं कल्पता' यह जानकर भी दोष वाला आहार देती हुई। ' (४०) अनाभोगेन ददती- बिना जाने दोष वाला आहार बहराती हुई। इन चालीस में से प्रारम्भ के पच्चीस दायकों से आहार लेने की भजना है। अर्थात् अवसर देख कर उन से भी आहार लेना कल्पता है । बाकी पन्द्रह से आहार लेना साधु को बिल्कुल नहीं कल्पता। (७) उम्मीसे (उन्मिश्र)- अचित्त के साथ सचित्त या मिश्र मिला हुआ अथवा सचित्त या मिश्र के साथ अचित्त मिला हुआ आहार लेना उन्मिश्र दोष है। (८) अपरिणय (अपरिणत)- पूरे पाक के बाद वस्तु के निर्जीव होने से पहिले ही उसे ले लेना अथवा जिसमें शस्त्र पूरा परिणत (परगम्या) न हुआ हो ऐसी वस्तु लेना अपरिणत दोष है। (8) लित्त (लिप्त)-- हाथ या पात्र (भोजन परोसने का बर्तन) आदि में लेप करने वाली वस्तु को लिप्स कहते हैं। जैसे-द्ध दही, घी आदि। लेप करने वाली वस्तु को लेना लिप्स दोष है। रसीली वस्तुओं के खाने से भोजन में वृद्धि बढ़ जाती है । दही आदि के हाथ या बर्तन आदि में लगे रहने पर उन्हें
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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