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________________ भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला असुइमलभरिय निझर सभाव दुग्गंधि सव्वकालं वि। धरणा उ सरीरकलिं बहुमलकलुस विमुंचंति॥ ___ अर्थात-- शरीर आदि के असार स्वरूप को जानने वाला कोई कहता है- हमेशा अपवित्र मलादि पदार्थों को निकालने वाले, स्वाभाविक दुर्गन्ध से भरे हुए, तरह तरह की विकृत वस्तुओं से अपवित्र ऐसे शरीर रूपी कलि अर्थात् पाप को जो छोड़ते हैं वे धन्य हैं। सब अनिष्टों का कारण तथा सब कलहों का मूल होने से शरीर को कलि कहा गया है। (७) हास्य रस-रूप, वय, वेश तथा भाषा आदि के वैपरीत्य की विडम्बना आदि कारणों से हास्य रस की उत्पत्ति होती है। पुरुष होकर स्त्री का रूप धारण करना, वैसे कपड़े पहिन कर उसी तरह की चेष्टाएं करना रूपवैपरीत्य है। जवान होकर वृद्ध का अनुकरण करना वयोवैपरीत्य है । राजपुत्र होकर वनिए आदि का वेश पहिन लेना वेशवैपरीत्य है। गुजराती होकर मध्य प्रदेश आदि की बोली बोलना भाषावैपरीत्य है। मन के प्रसन्न होने पर नेत्र, मुख, आदि का विकास अथवा प्रकाशित रूप से पेट कंपाना तथा अट्टहास करना हास्य रस के चिह्न हैं । जैसे पासुत्तमसीमंडिअपडिबुद्धं देवरं वलोअंती । हीजह थणभर कंपण पणमित्र मज्जा हसइ सामा॥ अर्थात्-किसी बहू ने अपने सोए हुए देवरको मसीसे रंग दिया। जब वह जगा तो वह हँसने लगी। उसे हँसती देखकर किसी ने अपने पास खड़े हुए दूसरे से कहा-देखो, वह श्यामा हँस रही है। मसी से रंगे हुए अपने देवर को देख कर हँसते हँसते नम गई है। उसका पेट दोहरा होगया है। (८) करुण रस-प्रिय के वियोग, गिरफ्तारी, प्राणदण्ड, रोग
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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