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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १९३ लोकोपचार विनय के सात भेद - अभ्यासवृत्तिता (गुरु आदि के पास रहना ), परच्छन्दानुवर्तिता (गुरु आदि की इच्छा के अनुकूल कार्य करना), कार्य्यहेतु (गुरु के कार्य को पूर्ण करने का प्रयत्न करना), कृत प्रतिक्रिया (अपने लिए किये गये उपकार का बदला चुकाना), आर्त्तगवेषणा (बीमार साधुओं की साल सम्भाल करना), देशकालानुज्ञता (अवसर देख कर कार्य करना), सर्वार्थाप्रतिलोमता (सब कार्यों में अनुकूल प्रवृत्ति करना) । प्रशस्त, अप्रशस्त काय विनय और लोकोपचार विनय के भेदों का विशेष स्वरूप और वर्णन इसके द्वितीय भाग सातवें बोल संग्रह बोल नं ० ५०३, ५०४, ५०५ में दे दिया गया है। विनय के सात भेदों के अनुक्रम से ५, ५५ (१०+४५) ५, २४ (१२+१२), २४ (१२+१२), १४, ७ = १३४ भेद हुए । वैयावृत्य के दस भेद आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, नवदीक्षित साधु), कुल, गण, संघ और साधर्मिक इन दस की वैयावृत्य करना । स्वाध्याय के ५ भेद वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा । ध्यान के ४८ भेद श्रार्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । ध्यान के ४ भेद - अमनोज्ञ वियोग चिन्ता, रोग चिन्ता, मनोज्ञ संयोग चिन्ता और निदान । श्रार्त्तध्यान के चार लिङ्ग (लक्षण) - आक्रन्दन, शोचन, परिदेवना, तेपनता । रौद्रध्यान के चार भेद - हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, चौर्यानुबन्धी, संरक्षणानुबन्धी । रौद्रध्यान के चार लिङ्ग (लक्षण)--
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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