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________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १५७ तरह का तप आरे हैं , सम्यक्त्व जिस की परिधि है, जिसके समान दूसरा कोई चक्र नहीं है, ऐसे संघ रूपी चक्र की सदा जय हो। (३) तीसरी उपमा रथ से दी गई हैभई सीलपडागूसियस्स तवनियम तुरयजुत्तस्स। संघरहस्स भगवो सज्झायसुनंदिघोसस्स॥ जिस पर अठारह हजार शील के अङ्ग रूपी पताकाएं फहग रही हैं, तप और संयम रूपी घोड़े लगे हुए हैं, पाँच तरह का स्वाध्याय जहाँ मंगलनाद है अथवा धुरी का शब्द है ऐसे संघ भगवान् रूपी रथ का कल्याण हो। (४) चौथी उपमा कमल से दी गई हैकम्मरय जलोहविणि ग्गयस्स सुयरयणदीहनालस्स॥ पंच महत्वयथिरकन्नियस्स गुणकेसरालस्स ॥ सावगजणमहुअरिपरिवुडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स ॥ संघपउमस्स भदं समणगण सहस्सपत्तस्स । ___ जो ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूपी जलाशय से निकला है, जिस तरह कमल जल से उत्पन्न होकर भी उसके ऊपर उठा रहता है उसी तरह संघ रूपी कमल संसार रूपी याकर्म रूपी जल से उत्पन्न होकर भी उनके ऊपर उठा हुआ है अर्थात् उन से बाहर निकल चुका है। यह नियम है कि जो एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है वह अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल में अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है। इसलिए साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप संघ में आया हुआ जीव संसार से निकला हुआ ही समझना चाहिए। शास्त्रों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके ही जीव कर्म रूपी जल से ऊपर उठता है और शास्त्रों के द्वारा ही धर्म में स्थिर रहता है। इसलिए शास्त्रों को नाल अर्थात् कमल दण्ड कहा गया है।
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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