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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के शरीर (६) अनन्तकाय को छोड़कर शेष पाँचों कार्यों के जीव (७) ज्ञानावरणीय आदि कर्म बन्धन के असंख्यात अध्यवसाय स्थान ( ८ ) अध्यवसाय विशेष उत्पन्न करने वाला असं ख्यात लोकाकाश की राशि जितना अनुभाग (६) योगप्रतिभाग और (१०) दोनों कालों के समय । इस प्रकार जो राशि प्राप्त हो उसे फिर तीन वार गुरणा करे । अन्त में जो राशि प्राप्त हो उससे एक कम राशि को उत्कृष्टासंख्येया संख्येयक कहते हैं। (८) भाव संख्या -- शंख योनि वाले द्वीन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों को भाव शंख कहते हैं । नोट- प्राकृत में ' संखा' शब्द के दो अर्थ होते हैं, संख्या और शंख | इसलिए सूत्र में इन दोनों को लेकर आठ भेद बताए हैं 1 (अनुयोगद्वार सूत्र १४६ ) गए १४७ ६२० - अनन्त आठ उत्कृष्टासंख्येया संख्येयक से अधिक संख्या को अनन्त कहते हैं। इसके आठ भेद हैं । ( १ ) जघन्य परीतानन्तक- उत्कृष्ट संख्येयासंख्येयक से एक अधिक संख्या । (२) मध्यम परीतानन्तक- जघन्य और उत्कृष्ट के बीच की संख्या । (३) उत्कृष्ट परीतानन्तक- जघन्य परीतानन्तक की संख्या को उसी से गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त हो, उससे एक कम की उत्कृष्ट परीतानन्तक कहते हैं । ( ४ ) जघन्य युक्तानन्तक- जघन्य परीतानन्तक को उसी से गुणह करने पर जो संख्या प्राप्त हो अथवा उत्कृष्ट परीतानन्तक से एक अधिक संख्या को जघन्य युक्तानन्तक कहते हैं । इतने ही अभवसिद्धिक जीव होते हैं। (५) मध्यम युक्तानन्तक- जघन्य और उत्कृष्ट के बीच की संख्या
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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