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________________ ९२ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अवयवों से भिन्न अवयवी और धर्मों से भिन्न कोई धर्मी भी नहीं है। सामान्य रूप से वस्तुओं के एक होने पर भी उसका निषेधक होने से यह मत भी अक्रियावादी है। ___ यह कहना भी ठीक नहीं है कि विशेषों से भिन्न सामान्य नाम की कोई वस्तु नहीं है। बिना सामान्य के कई पदार्थों में या पर्यायों में एक ही शब्द से प्रतीति नहीं हो सकती । कई घटों में घट घट तथा कड़ा कुण्डल वगैरह पर्यायों में स्वर्ण स्वर्ण यह प्रतीति सामान्य रूप एक अनुगत वस्तु के द्वारा ही हो सकती है। सभी पदार्थों को सर्वथा विलक्षण मानलेने पर एक परमाणु को छोड़ कर शेष सभी अपरमाणु हो जाएंगे। __ अवयवी को बिना माने अवयवों की व्यवस्था भी नहीं हो सकती। एक शरीर रूप अवयवी मान लेने के बाद ही यह कहा जा सकता है, हाथ पैर सिर वगैरह शरीर के अवयव हैं। इसी तरह धर्मी को माने बिना भी काम नहीं चलता। ___सामान्य विशेष, धर्मधर्मी, अवयव अवयवी आदि कथञ्चित् भिन्न तथा कथञ्चित् अभिन्न मानने से सब तरह की व्यवस्था ठीक हो जाती है। (३) मितवादी- जीवों के अनन्तानन्त होने पर भी जो उन्हें परिमित बताते हैं वे मितवादी हैं । उनका मत है कि संसार एक दिन भव्यों से रहित हो जायगा । अथवा जो जीव को अंगुष्ठ परिमाण, श्यामाक तन्दुलपरिमाण या अणुपरिमाण मानते हैं। वास्तव में जीव असंख्यात प्रदेशी है । अंगुल के असख्यातवें भाग से लेकर सारे लोक को व्याप्त कर सकता है। इसलिए अनियत परिमाण वाला है । अथवा जो असंख्यात द्वीप समुद्रों से युक्त चौदह राजू परिमाण वाले लोक को सात द्वीप समुद्र रूप ही बताता है वह मितवादी है। वस्तुत्व निषेध करने से
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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