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________________ ८२ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला दान, लाभ आदि में रुकावट पड़ती है वह अन्तराय कर्म है। यह कर्म कोशाध्यक्ष (भंडारी) के समान है। राजा की आज्ञा होते हुए भी कोशाध्यक्ष के प्रतिकूल होने पर जैसे याचक को धनप्राप्ति में बाधा पड़ जाती है। उसी प्रकार आत्मा रूप राजा के दान लाभादि की इच्छा होते हुए भी अन्तराय कर्म उसमें रुकावट डाल देता है । अन्तराय कम के पाँच भेद हैं-- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । इनका स्वरूप प्रथम भाग पाँचवाँ बोल संग्रह, बोल नं०३८८ में दिया जा चुका है। अन्तराय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अन्तराय देने से तथा अन्तराय कार्मण शरीर प्रयोग नामकर्म के उदय से जीव अन्तराय कर्मबांधता है । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न बाधा होने रूप इस कर्म का पाँच प्रकार का अनुभाव है । वह अनुभाव स्वतः भी होता है और परतः भी। एक या अनेक पुद्गलों का सम्बन्ध पाकर जीव अन्तराय कर्म के उक्त अनुभाव का अनुभव करता है। विशिष्ट रत्नादि के सम्बन्ध से तद्विषयक मूर्छा हो जाने से तत्सम्बन्धी दानान्तराय का उदय होता है। उन रत्नादि की सन्धि को छेदने वाले उपकरणों के सम्बन्ध से लाभान्तराय का उदय होता है । विशिष्ट आहार अथवा बहुमूल्य वस्तु का सम्बन्ध होने पर लोभवश उनका भोग नहीं किया जाता और इस तरह ये भोगान्तराय के उदय में कारण होती हैं। इसी प्रकार उपभोगान्तराय के विषय में भी समझना चाहिये। लाठी आदि की चोट से मूर्छित होना वीर्यान्तराय कर्म का अनुभाव होता है । आहार, औषधि आदि के परिणाम रूप पुद्गलपरिणाम से वीर्यान्तराय कर्म का उदय होता है । मन्त्र
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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