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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (घ) विकार उत्पन्न करने वाले वचन न कहना । (ङ) बालक्रीड़ा अर्थात् जुआ आदि कुव्यसनों का त्याग करना । (च) मधुर नीति से अर्थात् शान्तिमय मीठे वचनों से कार्य निकालना, कठोर वचन न बोलना । (३) श्रावक गुणवान होता है । यों तो गुण अनेक हैं पर यहाँ पाँच विशेष गुणों से प्रयोजन है । ཞཱ༦ (क) वाचना, पृच्छना, परिवर्त्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म कथा रूप पाँच प्रकार की स्वाध्याय करना । (ख) तप, नियम, वन्दनादि अनुष्ठानों में तत्पर रहना । (ग) विनयवान् होना । (घ) दुराग्रह अर्थात् ठ न करना । (ङ) जिन वचनों में रुचि रखना । ( ४ श्रावक ऋजुव्यवहारी होता है अर्थात् निष्कपट होकर सरल भाव से व्यवहार करता है । ( ५ ) श्रावक गुरु की सुश्रूषा (सेवाभक्ति) करने वाला होता है। (६) श्रावक प्रवचन अर्थात् शास्त्रों के ज्ञान में प्रवीण होता है । ( धर्मरत्न प्रकरण ) ४५३ - समकित के छः स्थान नव तत्त्व और छः द्रव्यों में दृढ़ श्रद्धा होना समकित (सम्यव) है । समकित धारण करने वाले व्यक्ति की नीचे लिखी : बातों में दृढ़ श्रद्धा होनी चाहिये । १ ) चेतना लक्षण जीव का अस्तित्व है । (२) जीव शाश्वत अर्थात् उत्पत्ति और विनाश रहित है । (३) जीव कर्मों का कर्त्ता है । (४) अपने किये हुए कर्मों का जीव स्वयं भोक्ता है।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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