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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह चारित्र अंगीकार करता है । जघन्य नव पूर्वधारी और उत्कृष्ट किंचिन्न्यून दश पूर्वधारी होते हैं । व्यवहार कल्प और प्रायश्चित्तों में कुशल होते हैं । ४७ ( ५ ) जिनकल्पस्थिति — उत्कृष्ट चारित्र पालन करने की इच्छा से गच्छ से निकले हुए साधु विशेष जिनकल्पी कहे जाते हैं । इनके आचार को जिन कल्पस्थिति कहते हैं । जघन्य नवें पूर्व की तृतीय वस्तु और उत्कृष्ट कुछ कम दस पूर्वधारी साधु जिन कल्प अङ्गीकार करते हैं। वे वज्रऋषभनाराच संहनन के धारक होते हैं। अकेले रहते हैं, उपसर्ग और रोगादि की वेदना विना औषधादि उपचार किए सहते हैं । उपाधि से रहित स्थान में रहते हैं। पिछली पाँच में से किसी एक पिण्डेषणा का अभिग्रह कर के भिक्षा लेते हैं। (६) स्थविर कल्पस्थिति - गच्छ में रहने वाले साधुओं के आचार को स्थविर कल्पस्थिति कहते हैं । सत्रह प्रकार के संयम का पालन करना, तप और प्रवचन को दीपाना, शिष्यों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि गुणों की वृद्धि करना, वृद्धावस्था में जंघा बल क्षीण होने पर वसति, आहार और उपधि के दोषों का परिहार करते हुए एक ही स्थान में रहना आदि स्थविर का आचार है । (ठाणांग सूत्र ५३० और २०६) (बृहत्कल्प उद्देशा ६) 1 ४४४ – कल्प पलिमन्धु छः साधु के आचार का मन्थन अर्थात् घात करने वाले कल्प पलिमन्धु कहलाते हैं । इनके छः भेद हैं (१) कौकुचिक - स्थान, शरीर और भाषा की अपेक्षा कुत्सित चेष्टा करने वाला कौकुचिक साधु संयम का घातक होता है ।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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