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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह रहित, मांस का आहार करने वाले, संक्लिष्ट परिणाम वाले ये जीव मरकर प्रायः नरक और तिर्यश्च योनि में उत्पन्न होंगे। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार २ (ठा० ६ सू० ४६२)(दुषमदुषमा)भगवती शतक ७ उद्देशा ! ४३१-उत्सर्पिणी के छः आरे जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होतेजाय,आयु और अवगाहना बढ़ते जायँ तथा उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम की वद्धि होती जाय वह उत्सर्पिणी काल है। जीवों की तरह पुद्गलों के वर्ण,गन्ध, रस और स्पर्श भी इस काल में क्रमशः शुभ होते जाते हैं। अशुभतम भाव, अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर होते हुए यावत् शुभतम हो जाते हैं । अवसर्पिणी काल में क्रमशः हास होते हुए हीनतम अवस्था आजाती है और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए क्रमशः उच्चतम अवस्था आजाती है। __अवसर्पिणी काल के जो छः बारे हैं वे ही आरे इस काल में व्यत्यय (उल्टे) रूप से होते हैं। इन का स्वरूप भी ठीक उन्हीं जैसा है, किन्तु विपरीत क्रम से। पहला आरा अवसर्पिणी के छठे आरे जैसा है । छठे आरे के अन्त समय में जो हीनतम अवस्था होती है उससे इस बारे का प्रारम्भ होता है और क्रमिक विकास द्वारा बढ़ते २ छठे आरे की प्रारम्भिक अवस्था के आने पर यह आरा समाप्त होता है। इसी प्रकार शेष आरों में भी क्रमिक विकास होता है। सभी आरे अन्तिम अवस्था से शुरु होकर क्रमिक विकास से प्रारम्भिक अवस्था को पहुँचते हैं। यह काल भी अवसर्पिणी काल की तरह दस कोडाकोड़ी सागरोपम का है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में जो अन्तर है वह नीचे लिखे अनुसार है:
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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